Chhatrapati Shivaji Maharaj छत्रपति शिवाजी महाराज!

 Chhatrapati Shivaji Maharaj!

जीवन और चरित्र!


 


महाराज का आरम्भिक जीवन!

                शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। उनके पिता शाहजीराजे भोंसले एक शक्तिशाली सामंत राजा एवं कूर्मि कुल के थे। उनकी माता जिजाबाई जाधवराव कुल में जन्मी एक असाधारण प्रतिभाशाली महिला थी। शिवाजी के बड़े भाई का नाम सम्भाजीराजे था जो अधिकतर समय अपने पिता शहाजीराजे भोसले के साथ ही रहते थे। शहाजीराजे कि दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं जिनसे उन्हें एक पुत्र था जिसका नाम व्यंकोजीराजे था। शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। उनका बचपन उनकी माता के मार्गदर्शन में ही बीता। उन्होंने राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा उन्ही से ली थी। वे उस युग के वातावरण और घटनाओं को भली प्रकार समझने लगे थे। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का एक संगठन बनाया। शिवाजी की माता जीजाबाई बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी जिसका असर इनके जीवन पर भी पड़ा।

            शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निंबाळकर (सई भोसले) के साथ लाल महल, पुणे में हुआ था। सई भोसले शिवाजी की पहली और प्रमुख पत्नी थीं। वह अपने पति के उत्तराधिकारी सम्भाजी की मां थीं। शिवाजी ने कुल ८ विवाह किए थे। वैवाहिक राजनीति के जरिए उन्होंने सभी मराठा सरदारों को एक छत्र के नीचे लाने में सफलता प्राप्त की थी। उनकी पत्नियों के नाम निम्नानुसार हैं : - सईबाई निंबालकर – (संताने : सम्भाजी, रानूबाई, सखूबाई, अंबिकाबाई), सोयराबाई मोहिते– (संताने : राजाराम, दीपाबाई), सकवरबाई गायकवाड – (संतान : कमलाबाई), सगुणाबाई शिर्के – (संतान : राजकुवरबाई), पुतलाबाई पालकर, काशीबाई जाधव, लक्ष्मीबाई विचारे और गुंवांताबाई इंगले।

महाराज का सैन्य वर्चस्व का आरम्भ :

            उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमण काल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने की बजाय वे मावलों को बीजापुर के खिलाफ़ संगठित करने लगे। मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुड़ा है और लगभग १५० किलोमीटर लम्बा और ३० किलोमीटर चौड़ा है। वे संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं। इस प्रदेश में मराठा और सभी जाति के लोग रहते हैं। शिवाजी महाराज ने इन सभी जाति के लोगों को लेकर मावलों (मावळा) नाम देकर सभी को संगठित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए। मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया था। उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुगलों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामंतो के हाथ सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया। शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई।

            रोहिदेश्वर का दुर्ग सबसे पहला दुर्ग था जिस पर शिवाजी महाराज ने सबसे पहले अधिकार किया था। उसके बाद तोरणा का दुर्ग जोपुणे के दक्षिण पश्चिम में ३० किलोमीटर की दूरी पर था। शिवाजी ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई की वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाए। उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया। उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया। इससे कोई १० किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था, शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा। शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किए बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बन्द कर दिया। राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। परेशान होकर आदिलशाह ने अपने सबसे काबिल मिर्जाराजा जयसिंह को भेजकर शिवाजी के २३ किलों पर कब्जा कर लिया। उसने पुरंदर के किले को नष्ट कर दिया। शिवाजी को इस संधि कि शर्तो को मानते हुए अपने पुत्र संभाजी को मिर्जाराजा जयसिंह को सौपना पड़ा। बाद में शिवाजी महाराज के मावला तानाजी मालुसरे ने कोंढाणा दुर्ग पर कब्जा किया पर उस युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुआ उसकी याद में कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया।

            शाहजी राजे को पुणे और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में था। शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया। इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुंचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बन्दी बना लिया। इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। १६४७ ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे। अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई। एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध एक सेना भेजी। आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे। लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहां के प्रमुखों को विदेशियों के खिलाफ़ युद्ध के लिए उकसाया।

पिता शाहजी का बन्दी बनना और युद्धविराम !

            बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दिया। शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकुंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के खिलाफ़ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की। शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजीराजे ने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् १६५६ में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए लेकिन चन्द्रराव भागने में सफल रहा। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक और मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए।



शिवाजी महाराज की मुगलों से पहली मुठभेड़ !

            बीजापुर तथा मुगल दोनों शिवाजी महाराज के शत्रु थे। उस समय शहजादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय १ नवम्बर १६५६ को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ २०० घोड़े लूट लिए। अहमदनगर से ७०० घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली लेकिन इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। जिसके कारण औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करके मुगल साम्राज्य का शाह बन गया।

दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डावाडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। परंतु जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। कल्याण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहां नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी ४० दुर्गों के मालिक बन चुके थे। इधर औरंगजेब के आगरा लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 1659 में १२०००० सैनिकों के साथ कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के ३० किलोमीटर उत्तर में, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके साथ ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार इस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खां के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खां शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खां को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खां को अपने वाघनखो से मार दिया (१० नवम्बर १६५९)।

            अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। २ अक्टूबर १६६५ को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। सन् १६६२ में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली। इसी सन्धि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (२५० किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (१५० किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के नियन्त्रण में आ गया। शिवाजी की सेना में इस समय तक ३०००० पैदल और १००० घुड़सवार हो गए थे।

शिवजी महाराज का मुगलों के साथ संघर्ष :

            उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खत्म होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया। वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियन्त्रण रखने के उद्देश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्का खाँ अपने १,५०,००० फ़ौज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुंच गया। उसने ३ साल तक मावल में लुटमार की। एक रात शिवाजी ने अपने ३५० मवलो के साथ उन पर हमला कर दिया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बच निकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा। इस लड़ाई में शाइस्ता खाँ के पुत्र अबुल फतह तथा चालीस रक्षकों और अनगिनत सैनिकों का कत्ल कर दिया गया। यहां पर मराठों ने अंधेरे मे स्त्री पुरूष के बीच भेद न कर पाने के कारण खान के जनान खाने की बहुत सी औरतों को मार डाला था। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम को शाइस्ता की जगह लेने भेजा।

इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। ६ साल शाईस्ता खान ने अपनी १,५०,००० फ़ौज लेकर राजा शिवाजी का पुरा पक्षेत्र जलाकर तबाह कर दिया था। इसलिए उस् का हर्जाना वसूल करने के लिए शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरम्भ कर दिया। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार। यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ १६६४ में छः दिनों तक सूरत के धनाड्य व्यापारियों को लूटा। आम आदमी को उन्होनें नहीं लूटा और फिर लौट गए। इस घटना का ज़िक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है। उस समय तक यूरोपीय व्यापारी भारत तथा अन्य एशियाई देशों में बस गये थे। नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (१७३९) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी। सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त कियाऔर शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई। राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा। जून १६६५ में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी २३ दुर्ग मुग़लों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल १२ दुर्ग बच जाएँगे। इन २३ दुर्गों से होने वाली आमदनी ४ लाख हूण सालाना थी। बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में १३ किस्तों में ४० लाख हूण अदा करने होंगे। इसके अलावा प्रतिवर्ष ५ लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे। शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी। बीजापुर के ख़िलाफ़ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे।

आगरा का आमंत्रण और शिवाजी महाराज का वहां से पलायन :

            शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। इसके विरोध में उन्होंने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया। औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नजरबन्द कर दिया और उनपर ५००० सैनिकों का पहरा लगा दिया गया। औरंगजेब का इरादा कुछ दिनों बाद (१८ अगस्त १६६६ को) राजा शिवाजी को मार डालने का था। लेकिन अपने अदम्य साहस और युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे। १७ आगस्त १६६६ सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी महाराज बनारस गये, और पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [२ सितम्बर १६६६]। इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया। औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके विष देकर उसकी हत्या करवा डाली। जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् १६६८ में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार सन्धि की। औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को ५००० की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया। पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुग़लों का अधिपत्य बना रहा। सन् १६७० में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से १३२ लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।

शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक !

            सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी। जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राह्मण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है। शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्योंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था। जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राह्मण काफी प्रसन्न हुये। किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणों को पकड़ लिया गया। परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है। वे किस वंश से हैं? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है। तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसे कर सकते हैं। हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं। मुग़ल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगज़ेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे।

            वापस लौट कर उन्होने ये बात शिवाजी महाराज को बताई। परंतु आश्चर्यजनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलों ने फूट डालने की कोशिश की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो ताकि प्रजा भी इसे न माने, लेकिन उनकी नहीं चली। शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की। विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के १२ दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया इस कारण से ४ अक्टूबर १६७४ को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग ५० लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दवी स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरुद्ध भेजा पर वे असफल रहे। सन् १६७७-७८ में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। बम्बई के दक्षिण में कोंकण, तुंगभद्रा नदी के पश्चिम में बेळगांव तथा धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूर तथा जिंजी पर अधिकार करने के बाद ३ अप्रैल, १६८० को शिवाजी का देहान्त हो गया।

महाराज की मृत्यु और उत्तराधिकार!

            कहा जाता है कि उन्हें षड़यंत्र पूर्वक विष दिया गया था जिससे ३ अप्रैल १६८० में उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार संभाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र संभाजी थे और दूसरी पत्नी से राजाराम नाम एक दूसरा पुत्र था। उस समय राजाराम की उम्र मात्र १० वर्ष थी अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया। उस समय औरंगजेब राजा शिवाजी का देहान्त देखकर अपनी पूरे भारत पर राज्य करने कि अभिलाषा से अपनी ५,००,००० की सेना लेकर दक्षिण भारत को जीतने निकला। औरंगजेब ने दक्षिण में आते ही अदिल्शाही २ दिनो में और कुतुबशाही १ ही दिनो में खतम कर दी। पर राजा सम्भाजी के नेतृत्व में मराठाओ ने ९ साल युद्ध करते हुये अपनी स्वतन्त्रता बरकरा‍र रखी।


Comments

Popular posts from this blog

Salil Chowdhury Hit Songs सलिल चौधरी!

Kavygatha Music Club!

15 Most Popular Holi Songs from Hindi Cinema!