काव्यगाथा पाक्षिक पत्रिका Kavygatha 30/05/24
काव्यगाथा ऑनलाइन पत्रिका 30/05/24
Kavygatha Online Magazine
संपादकीय
प्रिय मित्रों आजल बहुत गर्मी पड़ रही है। दुनिया भर का तापमान बढ़ चुका है और यह गर्मी जानलेवा हो चुकी है। हो सकता है भविष्य में और भी ज्यादा तापमान बढ़ जाए । इसके लिए वस्तुत हम लोग ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने विकास के नाम पर जंगलों की बलि चढ़ाई। हम अपने आसपास ही देखें कि हाईवे बनाने के लिए कितने पेड़ों को काटा गया लेकिन उनकी जगह कोई नये पेड़ लगाने की बजाय जो कि लगाया जा सकते थे बगल में कंपनी वालों ने दो सड़कों के बीच फूल और अन्य तरह के पौधे लगा दिए हैं जो कि किसी भी तरह पर्यावरण संतुलन का काम नहीं कर सकते और सरकार भी इस बारे में कोई निर्देश नहीं देती यह सारी चीज बड़ी चिंतित करने वाली है। मैं आप सबसे अनुरोध करता हूं कि इस बारे में आप स्वयं सोचें और अन्य लोगों को भी सचेत करें कि जितना संभव हो सके अपने आसपास पेड़ पौधे लगाए और पर्यावरण का संतुलन बनाने में सहयोग करें। यदि आपके पास खेत हैं तो आम के बगीचे या अन्य फलों के बगीचे आप लगा सकते हैं खेत की मेंड़ों पर आप यह काम कर सकते हैं और यदि खाली घर है और उसमें थोड़ी बहुत जगह है तो जितने भी संभव हो उसमें पेड़ लगाइए। अगर पेड़ नहीं लगा सकते तो कम से कम छोटे-छोटे पौधे छतों पर लगाइए । इस तरह से आपको ऑक्सीजन मिलेगी और पर्यावरण का संतुलन भी बनेगा। हालांकि इस कार्य को बड़े पैमाने पर करने की जरूरत है। कुछ स्वयं सेवी संगठन यह कार्य पहले से भी कर रहे हैं । सरकार भी बीच-बीच में इस पर तवज्जो देती है लेकिन हमें और तेज गति से कार्य करने की आवश्यकता है, हमेशा जागरूक रहने की आवश्यकता है । अनावश्यक पेड़ों को ना काटा जाए और यदि काटे जाएं तो उनके एवज में आसपास की जगह पर अन्य पेड़ पौधे लगाए जाएं । बड़े पेड़ खासतौर से वर्षा को आकर्षित करते हैं। पानी जीवन है अगर पानी न हो तो हमारा अस्तित्व जल्दी ही बल्कि मैं तो कहता हूं तुरंत ही समाप्त हो जाएगा। इसलिए यह सब चीजे एक दूसरे से जुड़ी हुई है ।
पूरा संसार एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। आप में से बहुत सारे लोग इस बात को समझते होंगे कि दुनिया में कहीं भी कोई घटना होती है, उसका किसी ने किसी रूप में प्रभाव हम पर पहुंच पड़ता ही है। आज यूक्रेन और सोवियत रूस का युद्ध चल रहा है । हमास और इजराइल का युद्ध चल रहा है और युद्ध के नए फ्रंट खुलने की संभावना बनी हुई है । दोस्तों यह बहुत ही खतरनाक समय है । इसकी वजह से महंगाई बढ़ रही है और दूसरी अन्य परेशानियां बढ़ रही है। पूरी दुनिया को शांति की आवश्यकता है । पूरी दुनिया को युद्ध के विरुद्ध होने की आवश्यकता है ।
यह काव्यगाथा पत्रिका हमने आज से 1 साल पहले शुरू की थी और अब तक हम काफी हद तक सफल रहे हैं । आजकल साहित्य की रचना और पढ़ना बड़ा कम सा हो गया है। ऐसे समय में हमारा यह प्रयास सराहनीय है । आप सब लोगों का सहयोग सराहनीय है । मैं उम्मीद करता हूं कि आगे आप लोग इसी तरह से मुझे सहयोग करेंगे और हम इस ऑनलाइन पत्रिका को लगातार प्रकाशित करते रहेंगे। आप इसमें केवल कविताएं ही ना भेजें आप अपने लेख, अपने विचार और छोटी-छोटी कहानीयां भी इसमें भेज सकते हैं। इससे इसका स्वरूप और सुंदर होगा और ज्यादा चीजे लोगों को पढ़ने को मिलेगी। क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है ऐसा कहा जाता है और यह बिल्कुल सच है तो जो कुछ भी आप लिख सकते हैं अलग-अलग तरह की चीजे इसमें भेजिए ताकि यह पत्रिका और भी सुंदर बन सके । आप सब का सहयोग रहा तो आगे हम ऑफलाइन कार्यक्रम भी करेंगे और उसमें एक साथ मिलकर काव्य पाठ करेंगे, अपने विचारों को एक दूसरे को शेयर करेंगे। इस तरह यह हमारा कारवां आगे बढ़ेगा। एक और अनुरोध विशेष है कि सदस्यों की संख्या बढ़ाने के लिए आप मेरा सहयोग करिए। जो भी कलाकार, जो भी लेखक आपके परिचय में है उनको इस बारे में बताइए और उनसे मेरी बात करवाइए और उनको इस पत्रिका से जोड़ने का प्रयास करिए। अपनी रचनाएं समय पर और जल्दी-जल्दी मुझे उपलब्ध कराया करिए क्योंकि हमारी कोशिश है हर 15 दिन में एक पत्रिका जारी करने की रही है। कभी-कभी हम नहीं कर पाए हैं क्योंकि रचनाएं समय पर उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप लोग जागरूक रहकर इस मुहिम में मेरा साथ दीजिए। अब तक जो कुछ आप लोगों ने किया उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
आपका मित्र : प्रहलाद परिहार, संपादक
1. कविता : मंज़िल !
आशा "अंकनी", बेतूल
आगे बढ़ने पर रोक नहीं,
पीछे मुड़ने का शौक नहीं,
जीवन हमारा, हमको ही जीना है,
इस जीवन पर अब कोई टोक नहीं।
मंजिल को पाने की काट नहीं,
आराम के लिए कोई खाट नहीं।
इसे पाकर जो सुकून मिले ,
उस सुकून के जैसा ठाट नहीं।
मंज़िल के रास्तों में ठाव नहीं,
बढ़ते कदमों संग छांव नहीं,
हमारी मंजिलें, हमारे ही रास्ते,
रास्तों में रूकते पांव नहीं।
अब जीवन में कोई खास नहीं,
कदमों को साथ की आस नहीं,
चलते जाएंगे मंज़िल की ओर,
मालूम है कि मंज़िल पास नहीं।
थक कर रूकने का विकल्प नहीं,
रास्ते बहुत से हैं अल्प नहीं,
आसानी से नहीं मिलती मंजिलें,
रूक जाए वो दृढ़ संकल्प नहीं।
2. राम का जन्म! : गीत
धर्मेंद्र कुमार खवसे, बेतूल बाजार
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को,
वंचितों को उनके अधिकार दिलाने को।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को ।
निराशा घेर चुकी थी,हार गए थे हिम्मत जो,
मन में उनके आशा का दीप जलाने को।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को।
नहीं मानव मानव में यहाॅं कोई भेद हैं,
खाई जूठी बेर सारे जग को दिखाने को।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को ।
नियम नहीं केवल आम जनता के लिए होते,
किया प्राणप्रिया का त्याग सीख सिखाने को ।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को।
नहीं रहता हमेशा यहाॅं अहं धन बल वैभव,
रावण को मारा सबक यही सिखाने को ।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को।
सतपथ यदि हो मानव भी भगवान सम होते,
रूप धर आए धरा पर जगत को बताने को।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को।
राजा ही प्रजा है और प्रजा ही राजा होती
राम बने राजा का सच्चा कर्तव्य निभाने को ।
राम का जन्म हुआ था अन्याय मिटाने को।
.........................धर्मेन्द्र कुमार खौसे
3. अनुराधा विशाल देशमुख,
नवापुर (भैंसदेही)
कविता : पल्लू
जब तक सिर पर पल्लू था,
न अस्त-व्यस्त बाल थे,
न तितर बितर हाल था।
हर रिश्तों में मर्यादा थी
हर स्त्री की इक गरिमा थी।
अब तो ससुर जेठ भी आ जाए तो,
फटे जींस में बहुएं घूमती है,
मार्डन मार्डन बोलकर ,
संस्कारों की धज्जियां उड़ती है।
पल्लू लेने के नाम से,
नाक मुंह सिकोड़ती है,
न तो अब पहले जैसे बंदीशे है,
फिर भी बड़ों के मान सम्मान से कतराती है।
पल्लू लेने वाले अब बैकवर्ड कहलाते हैं,
पहले ससुर जेठ घर में आते थे,
तो खांसने की आवाज से सतर्क करते थे,
अब तो वरमाला में ही बहू नाचते गाती आती है।
अब क्या ख़ाक खांसने की आवाज आएगी...
जमाना कितना भी डिजिटल हो जाए
संस्कार और रीति रिवाज....
बुजुर्गों के बनाए हुए ही अच्छे लगते हैं ।
इमारतें भले आसमान को छू लें,
पर जमीन से जुड़े लोग ही अच्छे लगते हैं।
मॉडर्न इतने हो गए हैं..
कि पूजा पाठ में भी सिर ढंकना भूल गए हैं,
अब कुछ लोग यह कहेंगे,
यह किस जमाने की बातें कर रही है?
हम चांद पर पहुंच गए और
यह सिर ढंकने की बात कर रही है ।
मुझे पता है,
कई लोगों को यह बात खलेगी,
पर यह तो मेरी कलम है,
सच लिखने से कहां रुकेंगी ।
4. डॉ निरुपमा सोनी, बेतूल
कविता : हम नये हैं!
युवा कहते हैं
हम नये हैं
हम आपसे ज्यादा जानते हैं
हम सबसे नए थे
जब हम कुछ नहीं जानते थे
खाना बोलना कुछ नहीं
सब पुरानों ने ही सिखाया
हाँ हम नये हैं
पर नहीं जानते वो सब
जो पुराने जानते है
हम नहीं जानते
वो खोया हुआ रातों का सुकून
जो पुरानों ने
हम नये को बनाने में गंवाया है
हम अक्सर पुरानों की
एक गलती पर चिल्ला उठते है
हम नहीं जानते,
हमारी वो हजार गलतियाँ
जो पुरानों ने सुधारी हैं
हाँ हम नये हैं
पर नहीं जानते वो सब
जो पुराने होने पर जान जाएंगे ।
5. डॉ प्रतिभा द्विवेदी,भोपाल
गीत : जीवन का सफ़र!
आवाज दे के हमको बुलाकर चले गए ।
वादे किये थे जो भी,भुलाकर चले गए।
कहते थे नेह दीप रक्खेंगे जलाये ,
अब ऐसा क्या हुआ कि बुझाकर चले गए।
आवाज.................................
हम रह गए तरसते, सुने कोई हमारी,
वो निकले होशियार, सुनाकर चले गए
आवाज ..................................
हम नींव के पत्थर थेbहमें खाक ही मिली,
वो ताज अपने शीश सजाकर चले गए।
आवाज .................................
हम खुद को जागरूक समझते ही रह गए,
वोआंख से काजल भी चुराकर चले गए।
आवाज..................................
"प्रतिभा" तुम्हीं बताओ कैसे पार जायेंगे,
सौंपी थी जिन्हें नाव, डुबाकर चले गए।
आवाज ...............................
6. दीपा मालवीय "दीप", बेतूल
कविता : ज़िंदगी का सफर!
जिन्दगी का ये सफ़र सुहाना लगता है।
सुख व दुःख से अनजाना लगता है।।
जीवन के रंग कई है,
खट्टे मीठे रिश्तों को निभाना पड़ता है।
जीवन की कड़वी यादों को भूलाना पड़ता है।।
तब जीवन की पटरी पर ये सफ़र सुहाना लगता है।
इस सफर में कोई साथ होता है,
तो कोई बिछड़ जाता है।।
कल जो बीत गया , वो वापस न आता है।
बस यादों का सिलसिला दे जाता है।।
ये दुनिया तो है ,एक रैनबसेरा पंछी बन उड़ जाना है।
उड़ने से पहले जीवन में कुछ ऐसा कर जाना है।।
मंजिल को पाने के लिए जीवन पथ पर अग्रसर होना है।
हिम्मत व हौसले से जीवन के लक्ष्य को पा जाना है।।
जिंदगी की कसमकस में हम अपने से दूर चले गए।
रिश्तों को संवारने में खुद को भूल गए।।
आओ अब साथ थोड़ा हम अपने लिए जी ले,
फिर सफ़र पर जाना है ।
गर, हमसफर साथ हो तो
ये सफ़र भी सुहाना लगता है।।
7. मां : मिताली उदयपुरे, बेतूल
कविता : मां!
हर कभी तू डांटती
कभी कभी है मारती
सारी मन की बातें
न जाने तू कैसे जानती?
हर हार-जीत में
कभी न मैं डगमगाई
हमेशा मम्मी हाथ पकड़
तुम मेरे साथ नज़र आई!!
8. पलक साबले, जबलपुर
कविता : थोड़ा ठहर जाना तुम!
जब लगे जिंदगी की भागदौड़ में
तुम खुद कहीं छूटते जा रहे हो,
थोड़ा बेवज़ह मुस्कुरा लेना तुम।
जब लगे कि खुद को वो बचपन वाली
मुस्कुराहट मे देखे हुए एक अरसा बीत गया है,
थोड़ा खुद को तवज्जु दे देना तुम।
जब लगे सब को समझते हुए
ख़ुद को क्यूँ इतना उलझा देते हो तुम,
थोड़ा अकेले वक्त बिता लेना तुम ।
जब लगे तुम्हें इतने शोर में
अब सिर्फ सुकून की तलाश है,
थोडा अकेले रो लेना तुम।
जब लगे खुद को आइने मे देख कर
बिखरने का एहसास होता है,
थोड़ा बचपन याद कर लेना तुम।
जब लगे तुम्हें
जो छोटी चीज़ों में ख़ुशी मिलती थी,
वो कहीं गायब हो गई है,
थोड़ा ठहर जाना तुम।
9. ओमप्रकाश भारती"ओम"
(परिचय)
ओमप्रकाश भारती जी का जन्म 7 अगस्त सन 1954 को ग्राम लखनवाड़ा जिला सिवनी मध्य प्रदेश में हुआ था। इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री चंद्रिका प्रसाद भारती है एवं माता का नाम श्रीमती जगवती भारती है। इनकी प्राथमिक शिक्षा शासकीय प्राथमिक शाला टिकारी (सन् 1960 से 1964) में, माध्यमिक शिक्षा शासकीय माध्यमिक शाला, मुंगवानी में (1964 से 1966), हायर सेकंडरी की शिक्षा मिशन उच्चतर माध्य. शाला, सिवनी में (1966 से 1971) संपन्न हुई।बाद में इन्होंने शासकीय महाविद्यालय, सिवनी से कला में स्नातक की शिक्षा (1971 से 1973) प्राप्त की तथा आगे सागर विश्वविद्यालय, सागर महाविद्यालय सिवनी से स्वाध्यायी छात्र के रूप में संस्कृत में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की ।
शासकीय शिक्षक के रूप में इनकी पहली नियुक्ति जनपद प्राथमिक शाला झिरी में ( 1973) में सहायक शिक्षक पद पर हुई। इसी क्रम में आगे इन्होंने विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी सेवा पूरी की जैसे - बी. टी. आई. पचमढ़ी शिक्षक प्रशिक्षण सन् 1976, जनपद प्राथमिक शाला घीसी प्रशिक्षण उपरांत पदांकन सन् 1977, शासकीय कन्या उ. मा. वि. कटंगी उच्च श्रेणी पद पर नियुक्ति सन् 1982, शासकीय माध्यमिक शाला खरखड़ी प्रधान पाठक मा. शा. पद पर पदोन्नति सन् 1990, साथ ही वेतन केंद्र प्रभारी कार्य भी किया । परिक्षेत्र एक वारासिवनी सहायक जिला शाला निरीक्षक पद पर पदांकन सन् 1994, साथ ही विकासखंड शिक्षा अधिकारी वारासिवनी का प्रभार और साथ में प्रौढ़ शिक्षा परियोजना अधिकारी वारासिवनी का प्रभार टेहलीबाई शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय वारासिवनी व्याख्याता पद पर पदोन्नति सन् 1997, शास. उच्च. माध्य विद्यालय खैरलांजी प्राचार्य पद पर पदोन्नति सन् 1999, विकासखंड शिक्षा अधिकारी खैरलांजी का प्रभार 31 अगस्त 2016 को प्राचार्य शासकीय उत्कृष्ट उच्चतर माध्यमिक विद्यालय खैरलांजी के पद से सेवानिवृत्त हुए।
वे वर्तमान में सामाजिक चिंतक , योग शिक्षक, उपभोक्ता संरक्षण समिति के शिक्षा प्रकोष्ठ अध्यक्ष के रूप में मध्यप्रदेश के बालाघाट नगर में निवासरत हैं। इन्हे लेखन , योग, चित्रकला, प्रसिद्ध ऐतिहासिक व धार्मिक स्थलों का भ्रमण आदि में खास रुचि है।
गीत :
प्राणों से प्यारा, भारत देश हमारा!
यह देश हमारा है !
प्राणों से प्यारा है !
आओ इसे बनाएं हम
आओ इसे बसाएं हम
आओ इसे सजाएं हम…..
यह देश हमारा है !
प्राणों से प्यारा है !
हम सब ऐसा काम करें
भारत माँ का नाम करें
जन जन में प्रेम जगाके
विश्व गुरु बन जाएं हम
आओ इसे बनाएं हम
आओ इसे बसाएं हम
आओ इसे सजाएं हम…..
यह देश हमारा है !
प्राणों से प्यारा है !
सूक्ष्म क्रिया नित योग करें
साथ ही प्राणायाम करें
ओम् ओम् का जाप कराके
जग को स्वस्थ बनाएं हम
आओ इसे बनाएं हम
आओ इसे बसाएं हम
आओ इसे सजाएं हम…..
यह देश हमारा है !
प्राणों से प्यारा है !
घर घर तिरंगा फहराएं
उच्च गगन में लहराएं
हर हाथ तिरंगा लेकर के
आजादी पर्व मनाएं हम
आओ इस बनाएं हम
आओ इसे बसाएं हम
आओ इसे सजाएं हम…..
यह देश हमारा है !
प्राणों से प्यारा है !
जय हिन्द ! वन्दे मातरम् !
10. शेवंती मकोड़े, बेतूल
कविता : सबको अपना बनाना है दोस्तों!













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