Kavygatha Online Magazine काव्यगाथा ऑनलाइन पत्रिका
1. प्रहलाद परिहार, बेतूल
कचरा बीनने वाली लड़की!
कुछ दिन पहले की बात है। सुबह में जब फ्रेश होने के लिए मेरे कोचिंग के नीचे वाले गार्डन में मैरिज गार्डन में गया तो देखा एक 14 -15 वर्ष की लड़की कचरा कचरे में कुछ ढूंढ रही थी। वह कचरा बिनने वाली थी । कबाड़ में से कुछ काम का सामान निकाल कर बेचती और उससे अपना और अपने परिवार का पेट भरने भारती । मैंने उसको देखा और अपने रास्ते चलने लगा तो उसने कहा, "बाबूजी यहां कुछ खाने को मिलेगा?" मैंने कहा कि अभी तो कोई यहां कुछ खाने को नहीं है तो वह कहने लगी, "मैंने सोचा शायद शादी वगैरा होती है यहां पर तो कुछ खाने को मिल जायेगा!" मैंने कहा, "बेटा अभी तो शादियां इस समय नहीं होती यहां। अभी तो शादियों का मौसम नहीं है तो खाने को तो नहीं है यहां।" इस पर फिर वह कहने लगी कि क्या मैं यहां कबाड़ा बिन सकती हूं? मैंने कहा कि आपको किसी गार्डन के मालिक ने कुछ बोला नहीं? तो वह कहने लगी कि नहीं मुझे तो यहां कोई नहीं दिखा। आप ही दिखे तो मैंने सोचा कि आपसे पूछ लूं ! मैं फालतू चीज उठा लेती हूं। कोई कीमती सामान नहीं उठाऊंगी। मैंने कहा, "बेटा यह कचरा बिनने की जगह नहीं है । ऐसा कहकर मैं गेट तक चला गया। फिर मैंने कुछ सोचा और वापस गया और उससे पूछा, "बेटा, तुमको भूख लगी है?" वह बोली, "हां!" तो मैंने कहा, "ठीक है यह ₹20 रख लो। कुछ खा लेना । लेकिन अब यहां कबाड़ मत उठाओ। क्योंकि यह मैरिज गार्डन है। यहां कुछ सामान रखा हुआ है। कोई दूसरा व्यक्ति देखेगा तो तुम पर चलाएगा। तुमको डांटेगा। अब तुम चले जाओ। तो वह बोली, "ठीक है बाबूजी, मैं जाती हूं । मैं जिधर से आई थी, उधर से ही चली जाती हूं। ऐसा कह कर वह लड़की जहां से आई थी वहीं चली गई । मैं सोचता रहा कि आज उसकी उम्र पढ़ने लिखने की है लेकिन वह भोली सी लड़की कचरा बीन रही है। कबाड़ा उठा रही है। पढ़ाई लिखाई से उसका कोई संबंध नहीं है । काश! कि उसके माता-पिता उसको इस काम से रोकते और पढ़ने लिखने भेजते। कुछ काबिल बनाते। न जाने कितनी और बेटियां इसी उम्र की होगी जो यह सब करती होगी और उन्हें कोई सहारा देने वाला नहीं। न जाने कब हमारा देश, हमारा समाज इतना सक्षम हो पाएगा कि पढ़ने की उम्र में बच्चों को इस तरह से काम ना करना पड़े । और बच्चों के साथ एक और डर लगा रहता है, लोगों की गंदी नजर का। मेरी जगह कोई और व्यक्ति हो सकता था। उसको डांटता, फटकारता, गाली देता और वहां से भगा देता । तो इससे पहले मैंने उसे वहां से जाने के लिए कह दिया। वहां चली गई और मैं सोचता रहा कि ऐसे बच्चों के लिए क्या किया जाए? मैं क्या कर सकता हूं?
2. आशा "अंकनी" , बेतूल
कविता : मातृत्व
एक कोमल सी लड़की, जब मातृत्व से निखरती,
नन्ही,प्यारी सी मुस्कान, उसे ममत्व से पूर्णित करती।
इस नये एहसास नई जिम्मेदारी का,वो सहर्ष पालन करती,
खिलखिलाती हूई नन्ही हंसी देख, स्वयं भी प्रफुल्लित होती।
चुभ न पाए धोखे से भी कोई कांटा नन्ही सी मुस्कान को,
इसीलिए सारे कांटों को समेट ,अपने आंचल से बांधती।
निष्कंटक हो उसकी भविष्य की राहें, जीवन सुख से पूर्ण रहे,
माँ इसी आशीर्वाद से नन्ही सी मुस्कान को सिंचित करती।
स्वयं के सिंचित नाजुक पौधे को वृक्ष रूप मे देख,
मां की ममता हर्षोल्लास से उमड़ती,
कितने भी परिपक्व हो वृक्ष ,वक्त के साथ ,
पर मां तो उस नन्ही सी मुस्कान को ही महसूस करती।
उनकी जिंदगी की खुशियों के लिए, स्वयं को भी समर्पित करती,
इस वृक्ष की शीतलता मे परिवार पल्लवित रहे,
बस यही ईश्वर से प्रार्थना करती।
3. धर्मेन्द्र कुमार खौसे, बेतूल बाजार
रहेंगे अशिक्षित ,अनपढ़
लोग यहाँ जब तक,
कैसे मैं मनाऊँ दशहरा त्योहार ये।
भीख मांँगते बच्चे,बूढ़े दिखते
जवान यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊँ मैं दशहरा त्योहार ये।
होते रहेंगे देश में
घोटाले यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊँ मैं दशहरा त्योहार ये
देना पड़े हर काम की
रिश्वत यहां जब तक,
कैसे मनाऊंँ मैं दशहरा त्योहार ये।
होता अन्याय मिलता नहीं
न्याय यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊंँ मैं दशहरा त्योहार ये।
युवा देश के घूम रहे
दरबदर यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊंँ मैं तेरा दशहरा त्योहार ये।
भरकर गोदामों को बेचे
महंगा माल यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊंँ मैं दशहरा त्योहार ये।
होता रहेगा शोषण
गरीबों का यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊंँ मैं दशहरा त्योहार ये।
हमले में होते रहेंगे शहीद
जवान यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊंँ दशहरा त्यौहार ये।
होती रहेगी इज्जत
तार तार यहाँ जब तक,
कैसे मनाऊंँ मैं दशहरा त्योहार ये ।
अशिक्षा,गरीबी,भ्रष्टाचार, रिश्वत,अन्याय,बेरोजगार,
जमाखोरी,अनाचार,
आतंकवाद और बलात्कार
खत्म होंगे जब ये रावण के दसों सिर,
खुशी से मनाऊंँगा मैं दशहरा त्यौहार ये।
4. विजय कुमार नंदा, भीमपुर, चिखली
मैं आदम का, आदम मेरा
जंगल राज महान,
ऐसी कैसी नीति रच दी,
ऐसी तैसी जीवन की कर दी,
हर तरफ है चीख पुकार,
मानव का मानव ही बन बैठा है
काल विकराल।
जंगलराज महान ,
जंगलराज महान ।
और लगा पड़ा है ग्रहण अभी तक,
जर्जर मनु विधान ,
अरे बांध गठरीया तहखाने में रख दो संविधान ,
रख दो संविधान.........!
जंगलराज महान ,
जंगलराज महान ।
खादी वालों शर्म करो अब,
अस्मत हुई बेहाल,
नहीं चाहिए नही चाहिए ऐसा कोई विधान,
जंगलराज महान ,
जंगलराज महान।
जिस्म नोच कर जला दिया,
एक जिंदा इंसान, एक जिंदा इंसान,
हाय रे फूटी किस्मत अपनी,
लाडो हुई अभिशाप ,
लाड़ो हुई अभिशाप.............!
जंगलराज महान ,
जंगलराज महान ।
है जिस की नज़र में खोट,
है जिसके दिल में लोभ
हैं जिसकी बातों में धरम भरम के झोल
है वही झुटलाने वाला
है उसके करम में खोट
जंगलराज महान ,
जंगलराज महान ।
आंख के बदले आंख चाहिए,
हाथ के बदले हाथ ,
जान के बदले जान चाहिए,
जंगलराज महान ।
इससे बेहतर वह जीवन था,
जहां जंगल में मोगली सुरक्षित रहता था,
अब तो घर में भी महफूज़ नहीं है बेटियां
फिर मानवता से श्रेष्ठ पशु वृत्ति हो गई ।
जंगलराज महान ,
जंगलराज महान ।
इकबाल ,भगत ,सुखदेव ,आजाद ।
है जिनके भगवान ,
उठो भारत के वीर सपूतो ,
कर दो इन काफीरों का नाश ।
जंगल राज महान,
जंगलराज महान।
मैं आदम का,आदम मेरा
जंगलराज महान।
5. दीपा मालवीय, बेतूल
कविता : पिता का मूल्य
पिता का मूल्य उनसे पूछो,
जिनके सर पर नहीं पिता का साया।
जब तक था सर पर पिता का हाथ,
मूल्य उनका,किसी को समझ न आया ।।1।।
वो ऊंगली पकड़ कर चलना,
वो कंधो पर बैठकर मेला घूमना।
न वो ऊंगली है, न वो कंधे है,
न वो मेला हाट आज नजर आया।।2।।
वो बात बात पर रूठ जाना,फिर पिता का हमे मानना,
हमारे लिए हाथी ,घोड़ा और बंदर बन जाना ।
अब न रूठना है ,न मनाना है ,
अब तो हमारी आंखो से उनका ओझल हो जाना।।3।।
होली पर रंगो संग , रंग बिरंगी पिचकारी का लाना ।
दिवाली पर कपड़े, मिठाई, पटाखे हमे दिलाना ।
अब न तो वो होली के रंग, न ही दिवाली के दियो का जगमगाना।
अब बस रह गया है तो पिता की यादों का अफसाना।।3।।
जब तीज त्यौहार आते ,
तो मां का चहेरा खिल जाता था,
सोलह श्रृंगार कर मां का रुप और सवर जाता था ।
न वो तीज है ,न वो त्योहार है,
और न ही मां की वो मुस्कान और रूप श्रृंगार,
हैं तो बस केवल उसके चेहरे ,पर मायूसी का तराना ।।4।।
दिल उसका बहुत बड़ा, प्रेम से करता हर गलती माफ,
नही डर किसी का उसे जब सर पर रहता पिता का हाथ ।
न वो दिल जो करे हमारी गलतियां माफ़,
न वो सर पर हाथ है जो दे हमारा सदा साथ ।।5।।
परिवार की हिम्मत , विश्वास और एकता की पहचान था पिता
उम्मीदों, आस और अनुभवों की पोटरी रखता जो सदा ।
न वो हिम्मत है न वो विश्वास और
न ही वो पोटली का खजाना।।6।।
आशीष जिनका हमारे संग होता,
जो जिंदगी में हमारी रंग भरता ।
आज उनसे बिछड़ने के बाद जाना हमने,
कितना अनमोल है, पिता का होना ।।7।।
6. पुष्पा पटेल, बेतूल
*। चंद्रयान-3*
खगोल विज्ञान का है आविष्कार,
अद्वितीय ,उपलब्धि और शानदार।
इसरो ने अपनी झोली में डाली,
छू लिया चांद को हमने,
और दिमाग नहीं है खाली।।
चांद की धरती पर आहिस्ता से,
रखा हमने आज पहला कदम।
हम नहीं किसी है से कम,
यही है तथागत की बुद्धि , स्वयं,
और स्वयं का है दम।।
तिरंगे का तिलक कल,
सपना देखा था पल पल।
विज्ञान का प्रभाव है मल्टीपल।
इसलिए चंद्रयान मिशन हुआ है सफल।।
चांद पर भारत का उदय,
नाव नई है ,आशा की ।
हम उनके ही संग सहारे,
डोर जुड़ी है जीवन की।
चांद पर बस्ती बसाने का,
अब अपना सपना होगा पूरा।
चांद घटता हो या हो बढ़ता।
आधा अधूरा हो या हो पूरा।
चांद कैसे हैं सबका मामा,
हमने किया अब तक ड्रामा।
हम तो कहते सभी के मित्र।
अब तो हमें भेजते हमेशा चित्र।।
6. डॉ नीरूपमा सोनी, बेतूल
संस्मरण : आज मैंने मौत को करीब से देखा!
आज सुबह मेरे क्लिनिक पर, एक छिपकली गेट से कट कर नीचे गिर गई। वो अपने जीवन के आखिरी क्षणों में थी। उसका एक पैर फड़फड़ा रहा था, जीभ बाहर निकल गई थी, पूंछ के कटे हुए हिस्से में खून था, उसके ऊपरी हिस्से में घाव था। वो बस असहाय पडी हुई थी ।अभी उसकी कुछ साँसे बाकी थी। मैं उसे देख रही थी। कुछ देर बाद वो पूरी तरह शांत थी। उसके प्राण शारीर छोड़ चुके थे। अब मुझे उसे उठाना था। मैं एक छोटी लकड़ी लेकर आई, मैं जैसे हि उसके पास ले गई, मुझे लगा कि ये लकड़ी बहुत कठोर है। उसके नाजुक शारीर को चुभ न जाए। मैं बाहर से जाकर दो पत्ते ले आई। एक खड्डे पर उस पत्ते की मदद से उसके पैर को फिर धीरे धीरे करके उसके पूरे शारीर को रखा। उसकी कटी हुई पूंछ भी उस खड्डे में रखी हुई थी। फिर मैं उसे बाहर ले गई। उसके लिए एक सही जगह देख रही थी। जहाँ मैं उसे रख सकूं। फिर कोई मुझसे उसे ले गया और कहीं रख आया।
आज की इस घटना से मैंने जीव की विवशता को देखा है।
हम इंसान भी कुछ ऐसे ही है । जब तक हमारी साँसे चलती हैं, हम बहुत सी उधेड़बुन में लगे रहते हैं। हमें लगता है कि हम क्या हासिल कर लें। बहुत कुछ पाने के बाद भी हममे कुछ करने की, कुछ पाने की लालसा हमेशा बनी रहती है। जीवन में आगे बढ़ना, ऊंचा उठना बहुत अच्छा है। और हमें अपनी प्रगति के लिए सोचना भी चाहिए। पर जीवन के इस अंतिम सच को भी याद रखना चाहिए, कि ये दौड़ एक दिन खत्म होनी है। उस दिन हम शिथिल हो जाएंगे। जिन चीजों के पीछे हम आजीवन भागते रहे, वो सब हमसे छूट जाएगी, यहाँ तक की ये हमारा शारीर जिसके लिए और जिसकी मदद से हम सब कुछ कर पाते हैं, हमारी रूह निकलने के बाद कोई और इसे शमशान तक ले जाएगा। जिस तरह यह छिपकली कुछ कर पाने या कुछ कह पाने में असमर्थ थी,वेसे ही एक दिन हम सब होंगे।
"कुछ भी सदा के लिए नहीं "
पैंसिल जितनी बार नुकीली बनाई जाए,
उतनी ही खत्म होते जाती है।
झोपड़ी टूट कर एक दिन महल बन जाती है।
न बचपन, न यौवन, न बुढ़ापा रह जाता है।
इंसान की काया,
हर दिन बदलती जाती है।
क्यूँ घमंड करें सम्पत्ति का,
हमारे जाते ही
किसी और की हो जाती है।
7. अनुराधा देशमुख, बेतूल
कविता : लेडिज फर्स्ट !
क्यों हम आज भी लेडिज फर्स्ट
बात करते हैं
बस में क्यों लेडीजों के लिए
सीट रिजर्व रखते हैं
जब समानता का अधिकार है
तो क्यों छोटी-छोटी बातों पर
लेडिस फर्स्ट का आधार लेते हैं
क्या आज भी पुरुषों से कम आंका जाता है
इसलिए लेडिज फर्स्ट का
नारा नहीं बिसराया जाता है
जब बढ़ गए सशक्तता की ओर कदम
तो फिर लेडिज फर्स्ट का
ढोल क्यों पीटा जाता है??
कंधे से कंधे मिलाकर चलना है
तुम्हें जब आत्मनिर्भर बनना है
तो लेडिज फर्स्ट क्या जरूरी है?
8. दीपक मेटकर, इंदौर
कविता : पेड़ और घोंसला!
वह दूर एक सुनहरा पेड़ हैं
उसे एक पेड़ ही रहने दो
उस पर एक नन्हा घोंसला हैं
उस घोंसले को वही रहने दो
उसे एक घरौंदा ही रहने दो!
शांत इस नीले आसमान की
रौशनी से बुनी हुई चादर में
इस पेड़ की ठंडी छांव में
नन्हे परिंदे को संसार बनाने दो!
दो साथी एक छत दो आरजू
सिमट कर जिंदगी बुनने दो
ये खूबसूरती कही खो न जाए
अपनी दुआएं इनपे बिछा दो!
ये जीवन दोबारा न मिले
इस तरह तो कोई नही चाहता
पर बुरा वक्त लौटकर न आए
ये आरजू परिंदा भी करता है!
नन्हे घर से कोई नुकसान नहीं
मेरी पनाह को हरी रहने दो
घोंसले को पेड़ पर ही रहने दो
इस पेड़ को पेड़ ही रहने दो!
पेड़ पर दो नन्हे परिंदो को
उम्र का ताना-बाना बुनने दो
इस पेड़ को अपना प्यार
इन दो नन्हों पर लुटाने दो!
हां, इस पेड़ को पेड़ ही रहने दो
अपनी जगह पर शान से रहने दो!
9. विजय कुमार पटैया, बरहापुर
कविता : दोस्त!
मैं दोस्त बहुत कम रखता हूं।
मगर सभी लाजवाब रखता हूं।
जीवन की आपाधापी के,
हर सवाल का,
जवाब रखता हूं
पौधों से बहुत प्यार है मुझे,
बाग में रंगीन गुलाब रखता हूं।
हर शख्स पर भरोसा करना,
आदत यही खराब रखता हूं।
आज सब चांद की करते बातें,
मैं साथ में आफताब रखता हूं।
मैं दोस्त बहुत कम रखता हूं।
मगर सभी लाजवाब रखता हूं।











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