काव्यगाथा ऑनलाइन पत्रिका 30/08/23 / Kavygatha Magazine
KavyGatha
Online Magazine 31/08/23
संपादकीय!
नमस्कार दोस्तों, बहुत दिनों बाद हम यहां पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं इस बीच काफी कुछ कारण रहे जिसके कारण यह पत्रिका हमने प्रकाशित नहीं की। कई बार तो लेखको की प्रविष्टियां इतनी कम थी कि एक पत्रिका के लिए पर्याप्त न थी और पिछले दिनों मैं व्यक्तिगत रूप से भी बहुत व्यस्त रहा। लेकिन आखिरकार आज हम यह पत्रिका निकल रहे हैं, पब्लिश कर रहे हैं। इसी बीच बहुत कुछ घटित हो चुका है । हमारे देश का चंद्रयान 3 सेटेलाइट चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतर चुका है और हम दुनिया के उन महान चार-पांच देशों में शामिल हो चुके हैं जिन्होंने चंद्रमा पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। देश विकास कर रहा है और हम भी विकास कर रहे हैं परंतु इसके साथ-साथ देश में धर्म जाति आदि को लेकर बहुत सारे उपद्रव भी हो रहे हैं। उपद्रव का तरीका वही पुराना है । कुछ लोगों को इस देश की पुरानी संस्कृति और सनातन संस्कृति पर ऐतराज है । नए-नए बयान नई-नई बातें लेकर वह आते रहते हैं । लोगों को गुमराह करने की कोशिश करते हैं । हमारे समाज को बांटने की कोशिश करते हैं । इतिहास को झूठ बताने की कोशिश करते हैं और यह सिलसिला पहले से भी जारी था लेकिन अब क्योंकि इंटरनेट का दौर है और सच्चाई किसी भी तरह से छुप नहीं पाती है लोग पता कर ही लेते हैं कि आखिर सच क्या है तो ऐसे में यह सच्चाई लोगों को पता चल ही जाती है कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ । लेकिन लोग अपने-अपने तरीके से बातों को लेते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सच और किसी चीज को झूठ बोलते हैं परंतु सच तो सच ही होता है । हम अपना काम करें, हमारी रोजी-रोटी चले, हम नौकरी करें, विकास करें, मनोरंजन करें, लेकिन साथ-साथ यह देश और हमारे समाज की एकता बनी रहे इसके बारे में भी विचार करें, उसके लिए भी कार्य करें। ऐसी भावना हम सब में हो और झूठ को नकार कर हम प्रेम मोहब्बत से रहे। आप सबका कल्याण हो। ऐसी भावना के साथ यह अंक आपको समर्पित है। धन्यवाद!
आपका मित्र : प्रहलाद परिहार, संपादक।
1. आशा "अंकनी"
Mobile मोबाइल!
बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक,
जिसे देख करते smile.
कुछ और नही है वो,
वो तो है हमारा प्यारा mobile.
दुनियाभर के मनोरंजन के साथ,
उसके पास रहती, हमारी जिंदगी की file.
दुनिया के हर कोने तक, पहुँच है उसकी,
सफर कर लिया उसने कई mile.
जीवन के सुंदर घरौंदो में,
Luxury के लगाए Tile.
सबकी जिंदगी मे रंग भर दिया उसने,
different है उसका style.
हर दिल की धड़कन बन गया वो,
वो तो है हमारा प्यारा mobile .
2. मिताली उदयपुरे
संविधान की गाथा
जिस देश का ताज हिमालय हैं,
जिस देश के मशहूर मसाले हैं,
जिस देश से पाक घबराता हैं,
उस देश को मैं ही चलाता हूँ
हाँ मैं भारत का विधाता हूँ।
नियमो से बंधा हूँ मैं,
नियमों से बांध कर रखता,
अपराधियों को मिले सजा़
इसका ध्यान में रखता।।
देश का धर्म ग्रंथ हूँ मैं,
देश का गणतंत्र हूँ मैं
संविधान नाम है मेरा
नियमों से बंधा हूँ मैं।।
वीरो के बलिदानों से..
हूआ स्वतंत्र भारत है,
गुलामी की जड़ो से मुक्त.
हुआ स्वतंत्र भारत हैं।।
नतमस्तक है सर
ऐसे वीरो के चरणों में,
जिन्होंने जीवन त्याग दिया
भारत माता के चरणों में।।2।।
3. धर्मेन्द्र खौसे, बैतूल बाजार
कविता : एक जवान का रक्षाबंधन!
घर में सजी होगी अल्पना
कर रही होगी कल्पना
रास्ता ताक रहे होंगे नैना
दरवाजे पर बैठी होगी बहना
भेजी होगी मेरी प्यारी मैया
आएगा मेरा प्यारा भैया
ले जाएगा मुझको मेरे अंगना
सबसे फिर होगा मेरा मिलना
सखियां होंगी संग मेरे
बचपन में हम संग खेले
सावन के हमने झूले झूले
देखे थे संग कई कई मेले
भाई की कलाई होगी
मुंह में मिठाई होगी
पहले सी नहीं लड़ाई होगी
मेरे हाथों भाई की कमाई होगी
पर नियति को कहां मंजूर था
मैं बहन से बड़ी दूर था
नहीं पहुंच सकूंगा उस तक
मैं बड़ा मजबूर था
सीमा पर देता पहरा हूँ
यादों में खोया गहरा हूँ
गोलियों की बौछारों में भी
नहीं डरा,खड़ा ठहरा हूँ
नहीं आ सकूंँगा माफ करना
मुझको सब बहनों की लाज हैं रखना
खतरे में है देश बहना
तुम मेरा इंतजार न करना
होगा तुमको दुख बड़ा
पर हृदय अपना कर लेना कड़ा
सोच लेना मेरे लिए नहीं
भाई मेरा सब बहनों के लिए लड़ा
बहन तेरी राखी याद आएगी
प्यार तेरा याद दिलाएगी
अंतिम सांँस तक लड़ने का
हौसला मुझ में जगाएगी
इस रक्षाबंधन को ना मना पाऊंँगा
इस जन्म तो शायद नहीं आ पाऊंँगा
वादा रहा तेरे भाई का बहन तुझसे
अगले जन्म में तेरा ही भाई बन आऊँगा
मन में थोड़ा धैर्य रखना
भाई पर अपने गर्व करना
हुआ शहीद भाई तुम्हारा
अंतिम विदाई मेरी तुम पर्व करना
रखना हल्दी कुमकुम चंदन
राखी बचपन वाली चमचम
तिरंगे में लिपटा हुआ मैं इस बार
स्वर्ग में ही मनाऊँगा रक्षाबंधन।
स्वर्ग में ही मनाऊँगा रक्षाबंधन।।
.........धर्मेन्द्र कुमार खौसे
4. डॉ प्रतिभा द्विवेदी, भोपाल
कविता : मैं माटी हूं!
मैं माटी हूं
जीवन का आरंभ, आधार और अंत भी
पतझड़ का आगाज़ हूं ,
लाती हूं बसंत भी ।
हां, मैं माटी हूं ।
युग बीते,समय बदला,
स्थिति-परिस्थिति भी बदली
किंतु मैं न बदली ।
लाल ,पीली ,काली ,
दोमट ,बलुई, चिकनी
जिस भी रुप में रही,
शुद्ध रही सत्य रही ।
जमीन से जुड़ी रही ।
मैं वही माटी हूं
जिसने देखा है तुम्हें,
कोशिका से शरीर में बदलते हुए ।
रेंगते,खड़े होते और चलते हुए ।
तुम्हारे ज्ञान को विज्ञान में ढलते हुए ।
मैं जननी हूं
तुम्हारी प्रगति की, उन्नति की ,
सभ्यता एवं संस्कृति की भी ।
मैं माटी हूं
वो माटी,
जो सृष्टि के आरंभ से ही
तुम्हारे साथ है
प्रतिपल-प्रतिक्षण
तुम्हें पालते-पोसते और सहेजते हुए ।
किंतु आह !
विकास पथ पर बढ़ते हुए ।
उत्कर्षों के नये आयाम गढ़ते हुए ।
मुझे ही भूलते जा रहे हो ।
अट्टालिकाओं में रहते हुए ।
चमचमाती गाड़ियों में दौड़ते हुए ।
वायुयानों में उड़ते हुए ,
स्वयं को ही सर्वेश्वर समझ बैठे हो ।
ठहरो
तुम माटी जाये हो
सिर पर चांद-तारों का मुकुट धर लेना
लेकिन पांव माटी में ही रहने देना ।
जड़ें मजबूत होंगी
तो ही फूलोगे-फलोगे
ध्यान रखना-
मैं माटी हूं और
जानती हूं सहेजना भी
और सजा देना भी ।
मुझे माटी ही बने रहने देना
कभी विवश मत करना
""मेटी""बनने के लिए ।
5. पलक साबले, जबलपुर
कविता : नन्हे हाथों की मजबूरी!
उम्र से छोटे थे ,
मजबूरियो ने उन्हें बड़ा बना दिया ,
अनकही जिम्मेदारियों ने उन्हें
कितना कुछ सिखा दिया |
जिन होठों पर मुस्कुराहट होनी थी
उन आँखों में अभी नमी है,
वो बचपन कहाँ गुम हो गया,
अब वह गली भी सुनी है |
जिन हाथों में किताब होनी थी,
उन कंधों पर रद्दी का बोझ है,
वो हंसता खेलता बचपन क्यू
जिम्मेदारियो के आगे इतना बेचैन है?
जिन्होनें कभी अपना घर न देखा,
वो दूसरो के लिए महल बनाने में मशरूफ़ है ,
इतनी छोटी उम्र में भी घर से दूर जाकर
कमाने के लिए वो मजबूर है |
फुलो सी नाज़ुक हाथो में,
क्यूं वो जिम्मेदरिया थम गई?
खिलौने से खेलने की उम्र में,
उन्हें बेचने की ज़रूरत पड़ गई |
बारिश की बूंदों का इंतज़ार तो
अब मुरझाए हुए गुलाब को भी होने लगा है,
ऐसे ही इन मजबूरियों से निजात हो जाए,
इन नन्हे हाथों को भी लगने लगा है |
खिलखिलाती वो मुस्कान जाने कहा गुम हो गई,
आँखों में आस की प्यास कब से वो किस्मत की राहे ढुंढ रही |
सपने तो है उनके भी, पर क्यू वो कही रूठ से गए है,
बचपन की खुशियों की चाबी उनकी कहीं छूट सी गई है |
ये बाल मजदूर नहीं मजबूर है अपने हालातो से,
क्या इन्हें हक नहीं मिलने का अपने ख्वाबो से |
6. विजय कुमार पटैया, भैंसदेही
गज़ल!
बीन बजाने से कोई सपेरा नहीं होता।
राह चलते हुए कहीं बसेरा नहीं होता।
दिया तले अंधेरा होता ही है सदा,
मगर बल्ब के नीचे अंधेरा नहीं होता।
आधी रात में अगर नींद खुल जाए,
उस वक्त जल्दी से सबेरा नहीं होता।
सब कुछ धन-दौलत तुम्हारे पास हो,
सब तुम्हारे ही होंगे कोई मेरा नहीं होता।
जान लिया है जिसने राम के रूप को,
उसके साथ जनम जनम का फेरा नहीं होता।
7. महेन्द्र कुमार गुदवारे, बैतूल
कविता : विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
चन्दा मामा अब हुआ हमारा।
चन्द्रयान वहाँ पहुँच गया है,
सफल हुआ अभियान सारा।
इसरो के सब वैज्ञानिकों की,
निष्ठा ने आज सफलता पाई।
धन्यवाद और आभार आपका,
प्रेषित हमारी हार्दिक - बधाई।
सबकी शुभकामनाएं साथ थी,
सफल हो गया यह अभियान।
विश्व गुरु फिर बन जाने को,
आज बढ़ा भारत का मान।
चारों ओर प्रसन्नता व्याप्त है,
हुआ गौरवान्वित राष्ट्र हमारा।
भारत माता की जय कहिएगा,
कहें विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।
8. दीपा मालवीय, बेतूल
कविता : मां
एक अक्षर का प्यारा नाम
माँ की ममता को मेरा शत- शत प्रणाम!
ईश्वर की अनुपम कृति है माँ।
एक अक्षर मे सिमटा हुआ हमारा संसार है माँ ।।
निःस्वार्थ वात्सल्य की देवी है माँ।
बिना किसी स्वार्थ के हम पर अपना दुलार लुटाती है माँ ।।
गीता,कुरान,बाइबिल,गुरु ग्रंथ मे बसी है माँ।
ईश्वर का दूसरा रूप है माँ ।।
सुख मे हम सब की साथी है माँ।
दुख मे हमें अपने आंचल मे छिपाती है माँ।।
हमारी आंखों में आंसू देखे तो अपने आंसू पी जाती है माँ।
हमें जीवन देने स्वयं कष्टों को सह जाती है माँ ।।
गर्मी की तपिश से बचने के लिए शीतल छाया बन जाती है माँ ।
जब नींद न आये हमें त़ो मीठी लोरी सुनाती है माँ ।।
चेहरा देख हमारे मन के भाव समझ जाती है माँ।
लाख गलतियां हो बच्चों से तो माफ कर देती है माँ।।
हमारी ख्वाहिशो को पूरा करने
खुद की खुशी कुरबान कर देती है माँ ।
रहे सलामत मेरे घर का दीपक यही दुआ देती है माँ......
यही दुआ देती है माँ.......
9. लक्ष्मण खंडागरे, नागपुर
मेरे प्यारे भांजे दिवंगत
लक्ष्य(लकी) साबले के लिए....
ऑंसुओ का सैलाब रुकता नहीं है...
दिल किसी बात में लगता नहीं है...
जाने वाले चले जाते हैं सब छोड़कर,
कितने दिलों को तोड़कर..... आंखें तरसती है
मां की बेटे की सूरत देखने के लिए ...
पिता गुमसुम सा निहारता है दिल छलनी सा होता है ...
शब्दों में बयां नहीं होता है,ये दर्द वहीं जानें
जिसने अपने जीगर का टुकड़ा खोया है...
अमर कोई नहीं है लेकिन यूं असमय जाना...
सबके दिलों पर राज करके यूं चले जाना...
ये कभी सोचा नहीं था...
जितना साथ था तुम्हारा हमारा...
उन यादों को समेटकर जीना पड़ेगा ..
राहे चाहें मुश्किल हो चलना पड़ेगा...
10. अनुराधा देशमुख, बेतूल
कविता : सहेलियां !
कुछ बिछड़ गई, कुछ आज भी साथ है
कुछ थोड़ी दूर , तो कुछ थोड़ी पास है।
बांट लेती है सुख-दुख, सहेलियों संग
जो बात किसी से ना कर पाती
साझा कर लेती है सखी संग !
सच जिंदगी में सहेलियां बहुत जरूरी है,
डूबती हुई सांझ में चमकता सूरज है सहेलियां !
भागदौड़ भरी जिंदगी में, सुकून भरी चांदनी रात है
सहेलियां रहो कितने भी व्यस्त परिवार में
पर मेल जोल रखा करो सखियों संग
इनके बिना सुने है जीवन के सारे रंग
यह कभी आपको थकने नहीं देंगे
यह कभी आपको बुढा होने नहीं देंगे
छुपाकर अपने बालों की सफेदी
यह सब हमेशा यही कहेंगी यार तू तो
आज भी पहले जैसी ही है ।
या पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई है
यह सहेलियां होती बड़ी प्यारी है
खुश किस्मत हूं कि मेरी जिंदगी में
इतनी सहेलियों का साथ है ।
आंगनवाड़ी से लेकर कॉलेज के सफर तक की
यह सब मेरे आस-पास ही है ।
Happy friendship day
to all my lovely friends 💕
अनुराधा देशमुख ✍️❤️










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