क्षितिज के उस पार ! Unbelievable But True Love Story !

क्षितिज के उस पार ! प्यार की अविश्वसनीय परन्तु सच्ची कहानी !

यूगोस्लाविया गृहयुद्ध के बीच पनपी एक ऐसी अकल्पनीय प्रेम कहानी जिसे पढ़कर आप जान जायेंगे कि सच्चा प्यार किसे कहते हैं।!

                         दोस्तों, आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ वह अकल्पनीय है परन्तु बिलकुल सच है। इस घटना का कैनवास अमेरिका और यूगोस्लाविया है जो आज सर्बिआ और बोस्निआ में विभाजित हो चुका है। यानि एक पूरी दुनिया।  यह कहानी लिखी है एच इ पाशा ने और इसका घटनाक्रम सन 1993 का है। यह कहानी सन 2003 में महानगर कहानिया नामक पत्रिका में छपी थी।  यहाँ इसे मैं अपनी याददास्त के आधार पर सुनाने की कोशिश कर रहा हूँ और मुझे पूरा यकीन है कि आज से पहले आपने ऐसी कहानी कभी नहीं पढ़ी या सुनी होगी। इसकी प्रत्येक घटना और हर पैराग्राफ अत्यंत आकर्षक है और आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाता है। 



                            यह कहानी है एक अमेरिकी क्रिस्चियन युवक एरिक एडम और हज़ारो मील दूर देश बोस्निआ (पूर्व यूगोस्लाविया) की एक मुस्लिम युवती मीरसादा की। साल है 1993 जब बार्सिलोना ओलिंपिक हो रहे थे।  एरिक एडम अपने घर में टीवी देखते हुए खाना बना रहा है।  वह शायद किसी अखबार में काम करता है। वह शायद अमेरिका के शिकागो शहर में रहता है। जब वह टीवी देख रहा था तो उसमे बोस्निआ टीम की एक लड़की के बारे में बताया जा रहा था जिसका नाम मीरसादा है।  उसमे बताया जा रहा था कि वह लड़की बोस्नियाई मूल की मुस्लिम युवती है जिसने गोलियों की बौछार के बीच दौड़ने का अभ्यास किया है क्योंकि वहां यूगोस्लाविया में सर्ब और बोस्निआ के मुस्लिम लोगों के बीच भयंकर गृहयद्ध चल रहा था। बोस्निआ एक अलग देश बन चुका  है और उसने अपनी ओलिंपिक टीम बार्सिलोना भेजी है। हालाँकि मीरसादा चूँकि एक गृहयद्ध से पीड़ित देश से आई है और खिलाडियों को मिलने वाली बेसिक सुविधाएँ भी उसे उपलभ्द नहीं थी इसलिए वह पूरी तरह से तैयार अन्य लड़कियों से मुकाबला हार जाती है।  परन्तु लोग अब तक मीरसादा के बारे में जान चुके थे इसलिए उसके हारने के बावजूद, उसके हौसले को सलाम करने के लिए, पूरा स्टेडियम खड़ा होकर उसके लिए देर तक ताली बजाता है। इसके साथ ही टीवी पर एक चेहरा दिखाया जाता है जो मीरसादा का है। एरिक एकदम से उस से जुड़ जाता है उसके दिल में मीरसादा के लिए जबरदस्त  सहानुभूति पैदा हो जाती है। 

                            एरिक भाव विभोर हो गया।  उसने बार्सिलोना ओलिंपिक के उस कैंप का नंबर तलाश जिसमे मीरसादा रुकी हुई थी और बहुत कोशिशों के बाद वह किसी तरह उस से बात करने में कामयाब हो सका। परन्तु मीरसादा अंग्रेजी नहीं जानती थी तो उसके साथ वाली किसी लड़की ने उसकी मदद की और एरिक ने उस से कहा कि वह उसकी और दूसरे बोस्नियाई लोगों की मदद करना चाहता है। बस छोटी सी बातचीत के बाद फोन कट गया। परन्तु इसी बातचीत में मीरसादा एरिक को यह बता पाई कि जब तक हालत ठीक नहीं होते तब तक के लिए, ओलिंपिक के बाद उसे अन्य खिलाडियों के साथ बोस्निआ के पडोसी देश स्लोवेनिया के एक होटल में ठहराया जाएगा। इसी बातचीत में एरिक ने मीरसादा को अपना फोन नंबर और पता दे दिया था। 

                                इधर एरिक ने यूगोस्लाविया में चल रहे गृहयद्ध के बारे में जानकारी जुटाना आरम्भ किया। जब मीरसादा से दिल का रिश्ता जुड़ा तो एरिक को बोस्निया का हर दुखी व्यक्ति अपना लगने लगा। उसे पता चला कि वहां सर्बों और बोस्नियाई मुस्लिमों के बीच भयंकर गृहयुद्ध चल रहा है। हज़ारों लोग मारे जा रहे हैं।  अनेक बच्चे अनाथ हो रहे हैं और युवतियां विधवा हो रही हैं। इधर एरिक की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं थी।  उसका जन्म जर्मनी में हुआ था। जब वह एक साल का था तो एक जर्मन दंपत्ति ने उसे गोद ले लिया था जो अमेरिका आ कर बस गए थे। उसे अपने वास्तविक माता पिता की कोई जानकारी नहीं थी। एरिक की एक प्रेमिका थी जिसके दिल में छेद था और अभी कुछ समय पहले ही उसकी मृत्यु हो गयी थी। इसके कारण एरिक दुखी रहा करता था। 



                                गृह युद्ध में मीर सादा का गांव घर सब उजड़ गया था। उन लोगों को बंधक बनाकर एक कैंप में ले जाया गया। वहां एक दिन एक लड़का उसे बहाने से उसके गांव उसके टूटे फूटे घर पर ले गया, बोला कि ''यदि तुम्हारा कुछ सामान रह गया हो तो ले लो। ''  परन्तु जब वह उसके साथ अपने टूटे फूटे घर पहुंची तो देखा वहां कुछ भी साबित नहीं बचा था।  उस लड़के के हाथ में गन थी और उसकी आँखों में हवस भरी थी।  असल में वह उसे बहाने से अकेले यहाँ लाया था।  वह मीरसादा के मोहल्ले का ही एक लड़का था।  मीरसादा ने उसे ऐसी नज़रों से देखा कि वह सहम गया और बोला, '' चलो जल्दी गाड़ी में बैठो वापस कैंप चलना है। '' मीरसादा ने मलबे में पड़ी अपने भाई की टूटी हुई घडी उठा ली और उस लड़के के साथ वापस कैंप आ गयी। आज किसी तरह उसकी इज़्ज़त बच पाई थी। अन्यथा तो अनेक बोस्नियाई लड़कियों और औरतों को सर्बियन आर्मी ने सेक्स स्लेव बना रखा था।  महिलाओं का जीवन नर्क बना हुआ था।  मीरसादा के माता-पिता अपनी जवान बेटी के लिए बड़े चिंतित हो रहे थे।  इसी बीच बोस्नियाई आर्मी ने उस कैंप पर धावा बोल दिया और उन लोगों को छुड़ाकर दूसरे सुरक्षित स्थान पर ले गए।  यूगोस्लाविया अब दो भागों में बट गया था - सर्बिआ और बोस्निआ।  लड़ाई जारी थी।  बोस्निआ में मुस्लिम लोगों की तादात ज्यादा थी।

                                इसी बीच बार्सिलोना में ओलिंपिक की घोषणा हो गयी।  बोस्निआ ने एक स्वतन्त्र देश के रूप में अपने खिलाडियों की टीम को ओलिंपिक में भेजने का फैसला किया। मीरसादा एक अनुभवी खिलाड़ी थी।  वह एक दौड़ाक थी। उसे भी उस टीम का हिस्सा बनने का मौका मिला। जिस जगह मीरसादा को ठहराया गया वह ही सर्बियन लड़कों की जद में थी।  ज्यादा सुरक्षित नहीं थी।  आये दिन गोलियों और बमों की आवाजें आती रहती थीं। परन्तु मीरसादा ने दौड़ने का फैसला किया।  दौड़ना  उसके लिए सांस लेने जैसा था।  वह खस्ताहाल हो चुकी सड़कों पर दौड़ने का अभ्यास करती।  कभी कभी गोलियां उसके आसपास से होकर गुजर जाती।  लोग उसे पागल समझते। गृहयुद्ध के इस भीषण समय में खिलाडियों को भरपेट भोजन मिलना भी मुश्किल था।  कई बार मीरसादा पेट पर गीली पट्टी बांधकर दौड़ी। आख़िरकार वह दिन भी आया जब बोस्नियाई सरकार अनेक अंतर्राष्ट्रीय दखल की मदद से अपने खिलाडियों को एक सुरक्षित हवाई जहाज से बार्सिलोना ओलिंपिक भेजने में सफल हो पायी। बोस्निआ अपने अलग देश की मान्यता को इस टीम के माध्यम से पक्का करना चाहता था। दुनियां मीरसादा के संघर्ष को जान रही थी और हार के बावजूद लोगों ने उसके लिए तालियां बजाई न की जितने वालों के लिए। 



                                 बार्सिलोना ओलिंपिक ख़तम होने के कई महीनों बाद एरिक को मिरसादा की दूसरी चिठ्ठी मिली।  यह चिट्ठी उसने बोस्निआ से नहीं बल्कि पूर्व यूगोस्लाविया के एक अन्य राज्य स्लोवेनिया से लिखी थी, जहाँ वह एक शरणार्थी के रूप में एक होटल में रह रही थी। केवल एरिक की चिट्ठियों को पढ़ने और उनका जवाब देने के लिए मीरसादा ने अंग्रेजी सीखना शुरू किया।  वह स्लोवेनिया में बड़ा एकाकी जीवन जी रही थी।  शरणार्थी होने के नाते उसे काम करने और कॉलेज में पढ़ने की अनुमति नहीं थी। नितांत अकेलेपन के उन दिनों में एरिक की चिट्ठियों ने उसे भावनात्मक सहारा दिया। साराएओ जहाँ उसके माता पिता अंतिम समय उसके साथ थे, उसके हालत बाद से बदतर होते जा रहे थे। मिरज़ादा को अपने प्रियजनों के बारे में कुछ भी पता नहीं चल  पा रहा था। सर्बों ने सारी दुनियां से साराइयो का संपर्क तोड़ दिया था। मिरज़ादा अख़बारों में वहां की खबरे पढ़ती और सोचती कि क्या उसके घर वाले अब तक ज़िंदा होंगे?

                                मिरसादा से एरिक का भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ा तो बोस्निआ के सारे दुखी प्राणी उसे अपने लगने लगे।  साराइयो की सड़कों पर मासूम बच्चों की लाशें देखकर उसका दिल तड़प उठता।  समाचार माध्यमों से उसने जाना कि बोस्निआ में लाखों बच्चे नर्क से भी बदतर जीवन जी रहे हैं। एरिक ने तय किया कि उसे उन बदनसीबों के लिए कुछ करना चाहिए ! एरिक ने अमेरिकी लोगों से बातचीत करनी शुरू की जो बोस्निआ के अनाथ बच्चों को गोद ले सकते थे। उसने उन सब से कहा कि बच्चों को बोस्निआ से अमेरिका लाने का काम उसका होगा। 

                                3 जनवरी 1993 को यानि मीरसादा के बारे में जानने के छः महीने बाद वह बोस्निआ के पडोसी राज्य क्रोशिया के लिए रवाना हुआ, जहाँ बहुत सारे बोस्नियाई बच्चों को शरणार्थी शिविरों में रखा गया था। उसने यह ग्यारह हज़ार किलोमीटर का लम्बा सफर केवल अपनी आस्था के आधार पर तय किया था। इसके पीछे केवल प्रेरणा थी तो उस परिचय की जो उसके और मीरसादा के बीच स्थापित हुआ था।  क्रोशिया के अनेक शिविरों में बच्चों से मिलने के बाद एरिक स्लोवेनिया की ओर रवाना हुआ।  कर द्वारा इस सफर में वह कई बार प्राणघातक हमलों से बचा। 



                                रात 9 बजे ठिठुरती हुई सर्दी में जब वह मीरसादा के होटल पहुंचा तो चारो ओर घाना कोहरा छाया हुआ था।  मीरसादा उसे होटल के दरवाजे पर इंतजार करती हुई मिली। हड्डियों को जमा देने वाली ठण्ड में वह बहुत देर से वहां खड़ी थी। अगले दिन दोपहर को एरिक को अमेरिका लौटना था।  वह अपने साथ एक दुभाषिया लाया था। मीरसादा के कमरे में वे रात भर आमने-सामने कुर्सी पर बैठे रहे और बातें करते रहे। मजे की बात यह थी कि उन्हें एक दूसरे को अपनी बात समझाने के लिए दुभाषिये की जरुरत ही नहीं पड़ी। दिल से पैदा होने वाले जज़्बों ने इस तरह उनके बीच एक पुल की रचना कर दी थी कि एक दूसरे की भाषा न जानते हुए भी वे एक दूसरे से अपनी बात कहने में सफल रहे।  

                                एरिक  ने उसे उन बच्चों के बारे में बताया जिन्हे उसने अमेरिका बुलाने का फैसला किया था।  उन परिवारों के बारे में बताया जो उन्हें अपने घर में रखना चाहते थे। एरिक मीरसादा के बारे में जो कुछ नहीं जानता था वह सब उसे मीरसादा ने बताया। और फिर एरिक ने उसे अपने जन्म और अमेरिका पहुँचने की पूरी कहानी सुनाई।  उसे अपनी स्वर्गीय प्रेमिका के बारे में भी बताया। 

                                   एरिक के विमान को  छूटने में अब एक घंटा से भी कम समय रह गया था।  उस समय तक दोनों बातें करते रहे और एरिक का दुभाषिया कमरे में एक तरफ पड़ा गहरी नींद लेता रहा।  विदा लेते हुए एरिक ने मीरसादा के माथे को चूमा और कहा ,''क्या तुम अमेरिका आना पसंद करोगी ? मीरसादा रोने लगी।  उसने कहा कि जब तक उसे अपने घर वालों के बारे में पता नहीं लग जाता, वह कहीं नहीं जा सकती। इस पर एरिक ने कहा, ठीक है, मेरा प्रस्ताव हमेशा कायम रहेगा। ''

                                   लेकिन काफी समय बीत जाने के बाद भी जब मीरसादा को अपने घरवालों का पता नहीं चला तो उसने एरिक को फोन करके कहा कि क्या वह उसे अमेरिका बुला सकता है। यह सुनकर एरिक एकदम खुश हो गया। उसने शहर के मेयर से मिलकर मीरसादा के सारे पेपर्स और वीजा तैयार करवाया  और अमेरिका बुलाने की व्यवस्था की। आखिर कई मुश्किलों के बाद मीरसादा हवाई जहाज से शिकागो एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई लेकिन उसने होटल वालों को एरिक का टेलीफोन नंबर दे दिया था कि जैसे ही उसके घरवालों का पता चले, वे उस खबर करें। 



                                बड़ी मुश्किलों के बाद आखिर मीरसादा शिकागो पहुँच गई।  एरिक उसे एयरपोर्ट पर लेने के लिए आया हुआ था।  अमेरिका में मीरसादा ने एरिक के घर पर फ्रिज में भरे हुए फलों को देखा तो वह उदास हो गयी।  उसे अपने देश बोस्निआ की याद आ गई।  उसे याद आया कि वहां गृह युद्ध में किस तरह लोगों का जीवन संकट में है  और बच्चे भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। एरिक उसे खुश रखने की हर संभव कोशिश कर रहा था। एकदिन वह मीरसादा  को शहर के मेयर से भी मिलवाने ले गया जिनकी मदद से वह उसे अमेरिका ला पाया था। अब मीरसादा पास के ही एक स्टेडियम में दौड़ने का अभ्यास करने जाने लगी थी। इसी बीच मीरसादा को बोस्निआ से फोन आया जिस पर उसकी माँ ने उससे बात की और बताया कि उसके पिता और छोटी बहन साथ हैं परन्तु भाई का कुछ पता नहीं चल पा रहा था। मीरसादा फूट कर रोइ।  उसके मन का बोझ कुछ हल्का हुआ। 

                                अब एरिक और मीरसादा दोनों मिलकर समाजसेवा का काम कर रहे थे। इस समय खासतौर पर वे बोस्निआ के गृहयुद्ध में अनाथ हुए बच्चों को अमेरिका में लोगों को गोद दिलाने पर ध्यान लगा रहे थे।  और वे इसमें काफी हद तक सफल भी हो रहे थे। इसी तरह कई महीने बीत गए। 

                                बसंत की ऐसी ही एक दोपहर में एक बगीचे में टहलते हुए एरिक ने मीरसादा से सवाल किया, '' क्या तुम मुझसे शादी करोगी? '' मीरसादा ने उसकी आँखों में देखा, जैसे वह भी इसी सवाल का इंतजार कर रही थी। एरिक ने जब मीरसादा की आँखों में झाँका तो उसने नज़रें झुकाते हुए गर्दन हिलाकर हां में जवाब दिया। और आखिर कुछ गिने चुने लोगों की उपस्थिति में दोनों की शादी हो गयी।  शादी का वीडियो बनाकर एरिक ने मीरसादा के परिवार को भिजवा दिया। इससे पहले मीरसादा ने फोन करके अपने माता-पिता से इस शादी की अनुमति ले ली थी। इस तरह हज़ारों मील दूर के रहने वाले दो अलग-अलग देश और दो अलग-अलग धर्मो के एरिक और मीरसादा का प्यार परवान चढ़ पाया और वे सदा के लिए एक दूसरे के हो गए। (समाप्त)    





 
 

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