हमारी वह बस यात्रा! Hamari Vah Bus Yatra!

 हमारी वह बस यात्रा! (हास्य कथा : प्रहलाद परिहार)

                 एक समय की बात है।  बारिश के दिन थे । हमें अपने व्यापार से संबंधित कुछ सामग्री की आवश्यकता पड़ी । शहर की सभी दुकानें देख ली लेकिन हमारा वह सामान नहीं मिला । बारिश थी कि थमने का नाम नहीं लेती थी । इसी वजह से परिवहन में भी बाधा आ रही थी इसलिए हमारा सामान भी नहीं आ पा रहा था तो हमने सोचा क्यों ना हम स्वयं भोपाल जाकर अपना सामान ले आए । हमने अपनी श्रीमती जी को अकेले ही घर पर मकान मालकिन के भरोसे छोड़ दिया और वादा करके निकल पड़े की रात तक वापस आ जाएंगे । अब देखिए आगे क्या हुआ ... हम जिस बस में चढ़े थे वह बस शाहपुर के आगे जाकर नाले के एक तरफ अन्य वाहनों के साथ फस गई । नाले के दोनों तरफ वाहनों की लंबी कतारें थी और नाले का पानी था उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था । आखिर 2 घंटे बाद ट्रैफिक चालू हुआ। बस धीरे-धीरे रेंग रही थी । इतने में हमें अपने एक मित्र दिखाई दिए । हम प्रसंता से अपनी बस से कूदकर के उस आगे वाली बस में चढ़ गए और अपने मित्र से बतियाने लगे । पर हाय री किस्मत हम जिस बस में चढ़े थे वह बस कीचड़ में फंस गई और जिस में से उतरे थे वह बस आगे निकल गई । यहां भी काफी मशक्कत के बाद वह बस आगे बढ़ी और टूटे हुए झगड़े की तरह हमने उसमें भोपाल तक का सफर तय किया ।



              भोपाल में उतरे तो जान में जान आई । वहां फ्रेश होकर हम बाजार में घुसे लेकिन हमारी बेवकूफी कहें या किस्मत उस दिन रविवार था और रविवार भोपाल का पुराना बाजार बंद रहता है । कुछ देर परेशान होने के बाद मेरे मित्र ने मुझे सलाह दी कि क्यों ना मैं उसके साथ इंदौर चला जाऊं जहां उसकी ससुराल थी और इंदौर हमारे प्रदेश का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र भी है । मैं तैयार हो गया हम लोग फिर नए सफर पर निकल पड़े । ईश्वर की मेहरबानी कि इस बार कोई हादसा नहीं हुआ । हम लोग थके हारे रात को 11:00 मित्र के ससुराल पहुंचे । वहां हमें बहुत आराम मिला । उधर हम इंदौर में आराम फरमा रहे थे, इधर शहर में हमारी पत्नी हमारे ना आने के कारण परेशान हुई जा रही थी ।

             दूसरे दिन, दिन भर मैंने खरीदारी की और रात को 8:00 बजे बस से हरदा रोड से बैतूल के लिए रवाना हुआ । अब मुझे घर से निकले हुए 36 घंटे हो चुके थे । वापसी का किस्सा भी बड़ा रोचक रहा। बस के चालू होते ही कंडक्टर खिड़की पर लटक गया और जोर-जोर से राह चलते लोगों को  हटने के लिए कहने लगा क्योंकि गाड़ी में हॉर्न नहीं था । यह तो पहला झटका था । कुछ आगे जाने के बाद ड्राइवर चिल्लाया "अबे कालू डंडा निकाल डंडा ।" यात्री नींद से बेहाल थे लेकिन उसकी इस बात से सबके कान खड़े हो गए कि आखिर डंडा किस लिए? उसके पहले तो वे काफी भगदड़ मचा चुके थे । खैर साहब थोड़ी देर बाद कंडक्टर ने डंडा निकाल लिया और इस बात का राज हमें थोड़ी ही देर में पता चल गया । आगे एक गांव में जैसे ही बस रुकी किसी ने गाली देते हुए हमारी बस के ड्राइवर को बाहर खींचा और वह डंडा वहां काम आने लगा । कुछ अन्य लोगों ने बीच-बचाव किया तो मामला ठीक हुआ।   

             हमारी यात्रा आगे बढ़ती गई । अब हमारी बस सुनसान घने जंगलों में से गुजर रही थी कि बस का 1 टायर पंचर हो गया । यात्री भयभीत हो गए । सोने पर सुहागा यह कि ड्राइवर - कंडक्टर के पास टॉर्च भी नहीं थी । इतने में उस रास्ते से एक ट्रक गुजरा । उसके ड्राइवर ने हमारी बस देख कर  अपना ट्रक रोका और अपने ट्रक की हेडलाइट तब तक जलाए रखी जब तक हमारी बस का पहिया ना बदल गया । यात्रियों का नींद के मारे बुरा हाल था । बस चली तो लोगों ने उस ट्रक ड्राइवर का शुक्रिया अदा किया । लेकिन हमारी फजीहत अभी पूरी नहीं हुई थी, आगे एक छोटे से गांव में हमारे ड्राइवर और कंडक्टर ने कम से कम डेढ़ घंटा खाना खाया और पिया । इतने समय लोग उन्हें नींद में भी गालियां देते रहे । खैर हमने तो चाय पी और अपनी सीट पर बैठ कर सोते रहे । 

              जैसे तैसे लोगों ने थोड़ी बहुत नींद ली थी कि सुबह के 5:00 बजते-बजते घने कोहरे में घिरी हमारी बस फिर रुक गई । अब परेशानी चरम बिंदु पर आ गई थी ड्राइवर - कंडक्टर के आदेश पर सारे यात्री नीचे उतर गए । आधे नींद में आधे होश में थे । हमने सबने मिलकर बस को 15 मिनट तक धक्का लगाया लेकिन वह चालू नहीं हुई तभी फिर एक ट्रक की मदद  हम लोगों को मिली और उसमें मोटी रस्सी बांधकर बस को खींचा गया तब कहीं वह चालू हो पाई । सब लोग दौड़कर उसमें चढ़ गए । हमारा धक्का मार सफर फिर चालू हो गया और फिर आया इंतेहा का वक्त - जैसे ही बस ने बैतूल की सीमा में प्रवेश किया "धड़ाक" की आवाज के साथ बस का एक्सल टूट गया। भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि कोई हादसा नहीं हुआ । बस रुक गई । वहां से हमारा घर 3 किलोमीटर दूर था । इतनी सुबह कोई साधन ना होने की वजह से वह पूरा सामान लादकर हम पैदल ही जैसे तैसे घर पहुंचे । घर पहुंचने पर हमारा कैसा स्वागत हुआ होगा इसका अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।(समाप्त)

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