मैं तुझे जरूर मिलूंगी : अमृता प्रीतम ! Main Tujhe Jarur Milungi!
मैं तुझे जरूर मिलूंगी : (पटकथा : प्रहलाद परिहार)
साहिर, अमृता और इंद्रजीत (इमरोज़) की अलौकिक प्रेमकथा!
प्रस्तावना : दोस्तों दुनियां की तमाम महान और यादगार प्रेम कहानियां आज की कहानी की तरह ही अधूरी है। शायद मिलन में उतनी कशिश नहीं कि लोग सदियों तक याद रखें बल्कि जिन्होंने एक दूसरे को टूटकर चाहा पर सांसारिक रूप से एक ना हो सके वहीं लोग आज मोहब्बत की ज़िंदा मिशाल हैं। आज की कहानी है - साहिर लुधियानवी, अमृता प्रीतम, और इंद्रजीत यानी इमरोज़ की। इस कहानी को तैयार करने में हमने कई स्रोतों का सहारा लिया है। कई किताबों, संदर्भों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियों का अध्ययन किया है, विश्लेषण कीकि है। तथ्यों की सच्चाई का हम कोई दावा नहीं करते । जो सुना, पढ़ा और देखा उसी को इस कहानी में पिरोया है। कहानी में प्रस्तुत सभी गीत साहिर लुधियानवी जी के लिखे हुए हैं।
यूं तो इनमें से हर एक पर कई - कई कहानियां लिखी जा सकती हैं लेकिन मेरी ये गुस्ताख कोशिश है कि मैं इन तीनों को एक ही समय एक ही प्लेटफॉर्म पर ले आया हूं । चूंकि कहानी का टॉपिक इन तीनों की प्रेम कहानी है इसलिए साहिर, अमृता या इमरोज़ के जीवन के सभी पहलुओं को विस्तार से उजागर करना यहां संभव नहीं, मसलन उनका साहित्य में मकाम, उनकी रचनाएं, और उन्हें मिले हुए सम्मान या पुरस्कारों पर विस्तार से चर्चा ना हो सकेगी। इसके लिए मैं आप सब से माफी चाहूंगा और यदि इन तीन महान आत्माओं के बारे में सच्ची और प्रेम भरी मेरी ये कोशिश आपको पसंद आए तो दाद दीजिएगा, कॉमेंट करिएगा, शेयर करिएगा। धन्यवाद !
सच्ची दास्तान : साहिर, अमृता और इंद्रजीत (इमरोज़) के अलौकिक प्रेम की!
ये कहानी है अमृता प्रीतम, साहिर लुधियानवी, और इंद्रजीत यानी इमरोज़ की। इस कहानी में दो लोग जुदा होकर भी साथ साथ रहे और दो लोग साथ रहकर भी अलग अलग। इमरोज़ का अर्थ होता है "वर्तमान"। वाकई वे अमृता के वर्तमान थे। एक तरफ जहां साहिर शायरी और फिल्मी गीतों के आसमान हैं तो अमृता पंजाबी साहित्य जगत की वो ज़मीन जिस पर रंग भरने का काम इमरोज़ ने ता उम्र किया। उन्होंने अमृता के जीवन को जीवंत बनाए रखा। यहां याद आता है फिल्म - हमराज 1967 का साहिर का लिखा, महेंद्र कपूर का गाया और रवि का संगीतबद्ध किया यह गीत -
तुम अगर साथ देने का वादा करो
मैं यूं ही मस्त नगमे लुटाता रहूं
तुम मुझे देखकर मुस्कुराती रहो
मैं तुम्हें देखकर गीत गाता रहूं।
कितने जलवे फिज़ाओं में बिखरे मगर
मैंने अब तक किसी को पुकारा नहीं।
तुमको देखा तो नज़रें ये कहने लगीं
हमको चेहरे से हटना गवारा नहीं।
तुम अगर मेरी नज़रों के आगे रहो,
मैं हर एक शय से नज़रें चुराता रहूं।
मैंने ख्वाबों में बरसों तरासा जिसे,
तुम वही संग - ए - मर मर की तस्वीर हो।
तुम ना समझो तुम्हारा मुकद्दर हूं मैं,
मैं समझता हूं तुम मेरी तक़दीर हो।
तुम अगर मुझको अपना समझने लगो,
मैं बहारों की महफ़िल सजाता रहूं।
अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 को गुजरा वाला (पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता करतार पहले गुरुद्वारे में साधु का जीवन बिता रहे थे। जहां अमृता की माताजी रजदेवी मत्था टेकने जाया करती थी। वे बहुत सुंदर थीं। वे एक शिक्षिका थीं और कुआरी विधवा का जीवन बिता रही थी क्योंकि उनके पति प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने गए थे और फिर कभी लौटकर नहीं आए। गुरु की आज्ञा से करतार ने राजदेवी से विवाह किया और उनकी एकमात्र संतान थीं अमृता। करतार भी एक लेखक और कवि थे। वे धार्मिक गीत लिखा करते थे। उनके घर सभी धर्मों के लोगों का आना जाना था। उनका घर किताबों से भरा रहता था। जब अमृता मात्र दस साल की थी तभी उनकी माता जी का कुछ दिन बीमार रहने के बाद निधन हो गया और तभी से अमृता का भगवान से लगाव नहीं रहा। पिता ही उनके पहले गुरु थे, उन्हीं की संगत में उन्होंने लिखना शुरू किया। उनका विवाह मात्र 6 साल की उम्र में प्रीतम सींग से तय हो गया था जो एक व्यापारी के बेटे थे। जब अमृता सोलह साल की हुईं तो उनका गौना हो गया और वे ससुराल चली गयीं। लगभग उसी समय उनका पहला काव्य संकलन ''अमृत लहरें'' प्रकशित हुआ था। प्रीतम से उम्र और समझ में अंतर होने के कारण उनका वैवाहिक जीवन ठीक न चला और दो बच्चों बाद लगभग 1960 में वे अपने पति से अलग हो गयीं। इसी अवसर पर साहिर का लिखा फिल्म - हम दोनों 1961 का मोहम्मद रफ़ी का गाया और जयदेव का संगीतबद्ध किया गीत यहाँ प्रस्तुत है -
मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया ,
हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया।
बर्बादियों का सोग मनाना फ़िज़ूल था ,
बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया।
जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया ,
जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया।
ग़म और ख़ुशी में फर्क न महसूस हो जहाँ ,
मैं दिल को उस मुक़ाम पे लाता चला गया।
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अब बात करते हैं साहिर की। साहिर का अर्थ होता है - ''जादूगर'' और शब्दों के इस जादूगर साहिर का जन्म 8 मार्च सन 1921 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। उनके बचपन का नाम अब्दुल हयी था। उनके पिता फज़ल मोहम्मद एक जमींदार थे और सामंती सोच रखते थे। उनकी कई पत्नियां थीं जिनमें से एक थी सरदार बेग़म जो साहिर की मां थीं। जब वे तेरह बरस के थे तो उनके माता पिता अलग हो गए। फिर उनकी माँ ने बड़ी मुश्किलों से उनका पालन पोषण किया। उनकी स्कूली शिक्षा लुधियाना के खालसा स्कूल स्कूल में हुई और सरकारी कॉलेज में उन्होंने पढाई की परन्तु बीच में ही वे किसी कारण अपनी माँ के साथ लाहौर जा बसे। परन्तु आज भी लुधियाना के कॉलेज में उनके नाम पर एक ऑडिटोरियम है और वहां के शिक्षक तथा विद्यार्थी उन्हें बड़ी मोहब्बत से याद करते हैं। साहिर को अपने शहर लुधियाना से बेहद लगाव था। जब 22 नवम्बर 1970 को कॉलेज की गोल्डन जुबली के मौके पर साहिर को वहां गोल्ड मेडल देकर सम्मानित किया गया तो उन्होंने वहां यह नज़्म पढ़ी थी -
मेरे अज्दाद का वतन ये शहर, मेरी तालीम का ये मक़ाम
मेरे बचपन की दोस्त ये गलियां, जिन में रुसवा हुआ सबाब का नाम
याद आते हैं इन फ़ज़ाओं में, कितने नज़दीक और दूर के नाम
कितने ख्वाबों के मलगजे चेहरे, कितनी यादों के मरमरी अज़्ज़ाम
कितने हंगामें, कितनी तहरीकें, कितने नारे जो थे ज़बा - ज़द - ए - आम
मैं जहाँ भी रहा यहीं का रहा, मुझ को भूले नहीं हैं ये दर - ओ - बाम
नाम मेरा जहाँ - जहाँ पहुंचा, साथ पहुंचा है इस दयार का नाम
मैं यहाँ मेजबाँ भी, मेहमाँ भी , आप जो चाहे दीजिये मुझे नाम
काफ़िले आते जाते रहते हैं, कब हुआ है यहाँ किसी का क़याम
नस्ल - दर - नस्ल काम जारी है, कार - ए -दुनियां कभी हुआ न तमाम
कल जहाँ मैं था आज तू है वहां, ए नई नस्ल तुझ को मेरा सलाम
याद आता है उनका ही एक और नग़मा जो फिल्म - ''कभी - कभी 1976 '' में मुकेश जी ने गया था और जिसका संगीत दिया था - खय्याम ने -
मैं पल दो पल का शायर हूँ , पल दो पल मेरी कहानी है ,
पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है।
मुझसे पहले कितने शायर , आये और आ कर चले गए
कुछ आहें भरकर लौट गए, कुछ नगमे गा कर चले गए।
वो भी एक पल का किस्सा थे , मैं भी एक पल का किस्सा हूँ
कल तुमसे ज़ुदा हो जाऊंगा, वो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ।
कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले , तुमसे बेहतर सुनने वाले।
कल कोई मुझको याद करे , क्यों कोई मुझको याद करे ,
मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक्त अपना बर्बाद करे।
उनके समय इक़बाल, ज़ोश, फ़िराक़, फैज़ और मज़ाज़ जैसे बड़े शायर पहले से ही मशहूर थे परन्तु वे तमाम परेशानियों के बावजूद ख़ामोशी से अपना काम करते रहे और लगभग दो साल के बाद उनका पहला काव्य संग्रह ''तल्खियां '' प्रकाशित हुआ और बाजार में आया। तल्खियां का अर्थ होता है कड़वाहटें। यह साहित्य जगत में उनकी एक धमाकेदार आमद थी। लोग उनकी शायरी के दीवाने हुए जा रहे थे। इस वक्त उनकी उम्र कोई 23 साल रही होगी। यह लगभग 1945 की बात है। ''तल्खियां'' में लिखी उनकी ताज महल पर लिखी यह नज़्म उनकी क्रन्तिकारी सोच को जाहिर करती है और कहते हैं कि उस वक्त तक उन्होंने ताज महल देखा भी नहीं था।
ताज तेरे लिए इक मज़हर - ए - उल्फत ही सहीं
तुझको इस वादी - ए - रंगीं से अक़ीदत ही सहीं
मेरी मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे !
बज़्म - ए - शाही में हम ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह में हों सतवत - ए - शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी।
अनगिनत लोगों ने दुनियां में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक न थे ज़ज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे।
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़ाश दर - ओ - दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे।
इस नज़्म को फिल्म - ग़ज़ल 1964 में रफ़ी साहब ने मदन मोहन जी के संगीत निर्देशन में गाया भी है। इसके बाद उन्होंने एक और नज़्म प्रकाशित की - परछाइयां। और यह भी जबरदस्त लोकप्रिय हुई। यह नज़्म उन्होंने अरब और इज़राइल के दूसरे युद्ध या शायद द्वितीय विश्व युद्ध को ध्यान में रखकर लिखी थी। जिसमें उन्होंने युद्ध के पहले, युद्ध के समय और युद्ध के बाद की स्थति में दो प्रेमियों के हालात के सम्बन्ध में लिखा है। उस समय कहा जाता है कि हर मुशायरे में उनसे इस नज़्म को पढ़ने के लिए कहा जाता था। कुछ लोगों का मानना था कि ये नज़्म उन्होंने लाहौर जाने से पहले अपने कॉलेज के दिनों में ही लिख ली थी। परछाइयां साहिर की पहचान बन गयी। बहुत लम्बी नज़्म है लेकिन मैं यहाँ चंद शुरुआती लाइनें आप लोगों के लिए पेश किये देता हूँ , बाकी आप उनकी किताबों में पढ़ लीजियेगा -
तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए।
खुद अपने क़दमों की आहट से झेंपती, डरती
खुद अपने साये की जुम्बिश से खौफ खाये हुए।
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं।
रवां है छोटी सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है।
तुम्हारा ज़िस्म हर एक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाँहों में झूल जाता है।
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं।
मैं फूल टॉक रहा हूँ तुम्हारे जुड़े में ,
तुम्हारी आँख मस्सर्रत से झुकती जाती है।
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ ,
ज़बान खुश्क है आवाज़ रूकती जाती है।
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं।
अब उनकी लेखनी में वामपंथी विचारधारा भी दिखाई देने लगी थी। उन्हें इस समय चार ऊर्दू पत्रिकाओं अदब - ए - लतीफ़, शाहकार, सवेरा, और पृथलारी के संपादन का कार्य मिल गया था। फिर देश आज़ाद हो गया। अंग्रेज जा चुके थे। लेकिन बटवारे ने दोनों तरफ के लोगों को बेहद दुखी कर दिया था। इतिहास का सबसे खूनी दौर था वह जिसमें लगभग बीस लाख लोग मारे गए थे। जो बचे उनकी सबकी अपनी अपनी कहानियां थीं। दुनियां ने न जाने क्या देख लिया था। इंसानों के सभी रूप जाहिर हो चुके थे। साहिर पाकिस्तान में ही रुक गए। लेकिन उनकी कलम इस साम्प्रदायिकता के विरुद्ध आग उगल रही थी। वे लोगों के हक़ में अपनी पत्रिका ''सवेरा'' के पन्ने भर रहे थे। पाकिस्तानी सरकार अपनी इस आलोचना को बरदास्त नहीं कर सकी और उसने 1949 में उनके विरुद्ध एक वारंट जारी कर दिया। साहिर ने निश्चय किया कि वे पाकिस्तान छोड़ देंगे। उनके दोस्तों ने उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन वे नहीं रुके। उन्हें समझ में आ गया था कि लाहौर और पाकिस्तान अब उनके लिए सहीं जगह नहीं रही। वे बम्बई (मुंबई ) चले आये। लोकप्रिय तो वे पहले ही हो चुके थे। यहाँ सन 1951 में उन्हें फिल्म - नौजवान का गीत ''ठंडी हवाएं लहरा के आएं ... '' लिखने का मौका मिला जो बहुत लोकप्रिय हुआ और आज भी लोकप्रिय है। इसका संगीत एस डी बर्मन साहब ने दिया था और इसे गाया था स्वर कोकिला लता जी ने -
ठंडी हवाएं लहरा के आएं
रुत है जवां, तुमको यहाँ कैसे बुलाएँ।
चाँद और तारे, हँसते नज़ारे
मिलके सभी दिल में सखी जादू जगाएँ।
कहा भी न जाये, रहा भी न जाये,
तुमसे अगर मिले भी नज़र, हम झेंप जाएँ।
दिल के फ़साने, दिल भी न जाने ,
तुमको सजन, दिल की लगन कैसे बताएं।
साहिर और अमृता की कहानी अविभाजित भारत के प्रीतनगर से शुरू होती है जहाँ वे दोनों किसी कवी सम्मलेन में भाग लेने पहुंचे थे। यह लगभग 1944 का साल रहा होगा। उस वक़्त अमृता कोई 25 साल की रही होंगी और साहिर की उम्र कोई 23 बरस की रही होगी। पहली नज़र में ही दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया था। कहते हैं उस समय वहां दो दिनों तक बारिश होती रही और इस कारण इनके 15 लोगों का काफ़िला वहीँ रुका रहा। साहिर बड़े शांत स्वाभाव के थे और ज्यादा बात नहीं करते थे। उस गावं से लोकोकी गावं तक इन लोगों को पैदल ही आना था। क्योंकि वहीँ से लाहौर के लिए बस पकड़नी थी। सब पैदल चलते रहे। इन दोनों ने भी कुछ खास बात नहीं की। परन्तु अमृता को लगा जैसे प्यार की तलाश जो उन्हें बरसों से थी वो पूरी हो गयी। वे लिखती हैं कि ''ऐसा लगा जैसे सदियों से मैं उसी के साये में चलती रही। शायद पिछले जनम से। साहिर ने अपनी तल्खियां की वही नज़्म - ''मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे ... '' फ्रेम करके अमृता को दी, जिसे अमृता ने ता उम्र सम्हालकर रखा। याद आता इस मौके पर साहिर का लिखा, हेमंत कुमार का गाया, एस डी बर्मन का संगीतबद्ध किया फिल्म - जाल 1952 का यह गीत -
ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ ?
सुन जा दिल की दास्ताँ।
पेड़ों की शाखों पे सोई - सोई चांदनी,
तेरे ख्यालों में खोयी - खोयी चाँदनी।
और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी,
रात ये बहार की फिर कभी न आएगी।
दो एक पल और है ये समां -----
लहरों के होठों पे धीमा धीमा राग है,
भीगी हवाओं में ठंडी ठंडी आग है।
इस हसीन आग में तू भी जल के देख ले,
ज़िन्दगी के गीत की धुन बदल के देख ले।
खुलने दे अब धड़कनों की ज़बां ------
जाती बहारें हैं, उठती जवानियाँ
तारों की छावं में कह ले कहानियां।
एक बार चल दिए गर तुझे पुकार के
लौटकर न आएंगे काफ़िले बहार के।
आ जा अभी ज़िंदगी है जवाँ -----
इस बात को याद करते हुए अमृता कहती हैं कि ''मुझे उस वक़्त ये लग रहा था कि काश ये रास्ता कभी ख़त्म ही न हो। लेकिन ऐसा होता नहीं है, हमारे रस्ते अलग होने थे और लाहौर पहुंचकर वो अलग भी हो गए। उन्हीं दिनों मैंने किसी से कहा था - ''क्या यदि उसे कोई बुलाये तो वो आएगा ?'' तो उसने कहा - '' हाँ अगर तुम बुलाओ तो वो सबकुछ छोड़कर आ जायेगा। '' लेकिन अमृता के पैरों में संस्कार की बेड़ियाँ थीं। (वे शादीशुदा थीं ) और साहिर का अपना संकोच ! उन्हीं दिनों को याद करते हुए अमृता कहती हैं - ''कुछ दिनों बाद साहिर मेरे घर आया तो ऐसे जैसे मेरी ही ख़ामोशी का एक टुकड़ा एक तरफ बैठा रहा और उठकर चला गया।'' इस बात का जिक्र अमृता ने अपनी किताब ''रशीदी टिकट'' में किया है। यह उनकी आत्मकथा है। साहिर जब भी मिलते बहुत कम बात करते, बस सिगरेट पीते रहते और उनके जाने के बाद अमृता सिगरेट के उन टुकड़ों को सम्हालकर रख लेतीं और जब मौका मिलता उन्हें अपने हाथों में लेकर साहिर का स्पर्श महसूस करतीं। उनका प्यार कोई जबरदस्ती नहीं था न ही कोई शारीरिक आकर्षण मात्र ! बल्कि एक ऐसा सुन्दर रोमांटिक रिश्ता जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है। जो उन्होंने जिया वो बहुत खूबसूरत था, अलौकिक था। इस वक़्त फिल्म - हम दोनों 1961 का मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले का गया और जयदेव का संगीतबद्ध किया, साहिर का लिखा या गीत याद आ रहा है -
इस वीडियो को अवश्य देखें साहिर और अमृता की अनोखी
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अभी न जाओ छोड़कर के दिल अभी भरा नहीं,
अभी अभी तो आई हो, बहार बन के छाई हो,
हवा जरा महक तो ले, नज़र जरा बहक तो ले ,
ये शाम ढल तो ले ज़रा, ये दिल संभल तो ले ज़रा
मैं थोड़ी देर जी तो लूँ , नशे के घूंट पी तो लूँ
अभी तो कुछ कहा नहीं, अभी तो कुछ सुना नहीं।
सितारे झिलमिला उठे, चिराग़ जगमगा उठे ,
बस अब न मुझको टोकना, न बढ़ के राह रोकना
अगर मैं रुक गयी अभी तो जा न पाऊँगी कभी
यही कहोगे तुम सदा के दिल अभी नहीं भरा।
जो ख़तम हो किसी जगह ये ऐसा सिलसिला नहीं।
लाहौर के दिनों में एक बार साहिर अमृता के घर आए और उन्हें एक नज़्म देकर बोले इस नज़्म में जो लड़की है वो कोई नहीं है और जो जगह है वो भी कहीं नहीं है। जब अमृता उन्हें वो कागज़ लौटाने लगीं तो साहिर ने कहा, ''मैं इसे वापस ले जाने के लिए नहीं लाया। '' इसके बाद अमृता जब भी नज़्म लिखतीं तो उन्हें लगता वो साहिर को ख़त लिख रही हैं। अमृता से बिछड़ने के अहसास को साहिर ने अपने इस गीत में बखूबी बयां किया है जिसे उन्होंने फिल्म ''शगुन 1964 '' में इस्तेमाल किया था। जिसे गाया था रफ़ी साहेब ने और इसमें संगीत दिया है खय्याम ने -
तुम चली जाओगी, परछाइयां रह जाएँगी,
कुछ न कुछ हुश्न की रानाइयाँ रह जाएँगी।
तुम के इस झील के साहिल पे मिली हो मुझको,
जब भी देखूंगा यहीं मुझको नज़र आओगी।
याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है ,
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी।
घुल के रह जाएगी झोंकों में बदन की खुशबु ,
ज़ुल्फ़ का अक़्स घटाओं में रहेगा सदियों।
फूल चुपके से चुरा लेंगे लबों की सुर्खी ,
ये जवां हुश्न फ़िज़ाओं में रहेगा सदियों।
इस धड़कती हुई शादाब हसीं वादी में,
ये न समझो ज़रा देर का किस्सा हो तुम।
अब हमेशा के लिए मेरे मुक़द्दर की तरह ,
इन नज़रों के मुक़द्दर का भी हिस्सा हो तुम।
इन्हीं दिनों का ज़िक्र करते हुए साहिर ने आज़ाद भारत में एक मुलाकात में अमृता को बताया था कि ''प्रीतनगर के मुशायरे के बाद लाहौर लौट आने के बाद मैं अक्सर तुम्हारी गली की उस पान की दुकान पर जाया करता था जहाँ से तुम्हारे घर से गली की तरफ खुलने वाली खिड़की साफ़ दिखाई देती थी। मैं वहां घंटों कभी बीड़ी तो कभी सिगरेट तो कभी सोडा बॉटल लेने के बहाने खड़ा रहता था और उस खिड़की की तरफ देखा करता था कि कब तुम वो खिड़की खोलो और मैं तुम्हारी एक झलक पा सकूँ। '' उस वक़्त साहिर की ये बातें सुनकर अमृता ने अपना माथा पीट लिया था। और फिर एक दिन अमृता चली गयीं क्योंकि मुल्क का बटवारा हो गया था। अमृता हिंदुस्तान में यानि दिल्ली में आ बसीं और साहिर पाकिस्तान में ही रह गए। उस वक़्त या शायद उस से पहले उन्होंने जो नज़्म लिखी थी जिस पर बाद में फिल्म ''कभी-कभी 1976'' का मशहूर गीत - ''कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है '' लिखा गया था।
इस गीत को गाया था मुकेश जी ने और संगीत दिया था खय्याम ने। वह नज़्म वास्तव में इस तरह थी -
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुजरने पाती तो शादाब हो भी सकती थी।
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुकद्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी।
अज़ब न था कि मैं बेगाना - ए - अलम रह कर
तेरे ज़माल की रानाइयों में खो रहता।
तेरा गुदाज़ बदन, तेरी नीमबाज़ आँखें ,
इन्हीं फ़सानों में महव हो रहता।
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे ,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं।
न कोई जादह - ए - मंज़िल न रौशनी का सुराग
भटक रही है खलाओं में ज़िंदगी मेरी।
इन्हीं खलाओं में रह जाऊंगा कभी खोकर,
मैं जनता हूँ मेरी हमनफ़स मगर फिर भी ,
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है।
अब इसके बाद बात करते हैं 1947 के भारत - पाक विभाजन की। बहुत बुरा दौर था वह। बेइंतहा कत्लेआम हुआ और सबसे ज्यादा खून बहा पंजाब में। पंजाब का विभाजन हो गया। लाखों बेक़सूर मारे गए। हज़ारों माओं की कोख उजड़ गयी। हजारों बेटियां उठा ली गयीं। इंसानियत शर्मशार हुई। अबलाओं की आबरू लूट ली गयी। हर तरफ कोहराम, आग, धुआँ, और रुदन था। ऐसे में जैसे - तैसे अमृता अपने बच्चों और साहिर की फ्रेम की हुई ताज महल वाली नज़्म लेकर आज़ाद हिंदुस्तान आ गयीं और दिल्ली को अपना ठिकाना बनाया। उस वक़्त अमृता ने वारिस शाह (जिन्होंने पंजाब में गायी जाने वाली ''हीर'' लिखी थी ) को पुकारते हुए जो कविता लिखी थी वह आज तक मुल्क के दोनों तरफ के लोगों में बहुत लोकप्रिय है। पेश है मूलतः पंजाबी में लिखी उनकी पूरी दुनियाँ में मशहूर कविता का हिंदी अर्थ -
" आज वारिस शाह से कहती हूं - अपनी कब्र में से बोलो!
और इश्क की किताब का कोई नया पन्ना खोलो!
जब पंजाब की एक बेटी रोई थी, तो तूने उसकी लंबी दास्तान लिखी,
आज लाखों बेटियां रो रही हैं वारिस शाह! तुमसे कह रही हैं:
ऐ दर्द मंदों के दोस्त, पंजाब की हालत देखो,
चौपाल लाशों से अटा पड़ा है, चनाब (नदी) लहू से भर गया है!
किसी ने पांचों दरियाओं में जहर मिला दिया है,
और यही पानी धरती को सींचने लगा है।
इस जरखेज़ धरती से ज़हर फुट निकला है,
देखो, सुर्खी कहां तक आ पहुंची! और कहर कहां तक आ पहुंचा!
हर गले से गीत टूट गया, हर चरखे का धागा टूट गया,
सहेलियां एक दूसरे से बिछुड़ गईं, चरखों की महफ़िल वीरान हो गई,
जहां प्यार के नगमें गूंजते थे, वह बांसुरी कहां खो गई?
और रांझे के सब भाई बांसुरी बजाना भूल गए।
धरती पर लहू बरसा, कब्रों से खून टपकने लगा,
और प्रीत की शहजादीयां मजारों में रोने लगीं
आज जैसे सभी "कैदो" बन गए, हुस्न और इश्क के चोर!
मैं कहां से ढूंढ लाऊं एक वारिस शाह और!
वारिस शाह ! मैं तुमसे कहती हूं अपनी कब्र से उठो
और इश्क की किताब का कोई नया वर्क खोलो!
कई साल बाद अमृता इस कविता से जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए कहती हैं, "एक बार पाकिस्तान से एक दोस्त मिलने के लिए आए। उन्होंने मेरे सामने कुछ केले रख दिए । मैंने कहा ऐ क्या? तो वे बोले - ये मेरी तरफ से नहीं है। वो जब मैं वहां से चला तो एक केले वाला दौड़ा - दौड़ा आया और बोला तुम हिंदुस्तान जा रहे हो? मैंने कहा हां, तो वो बोला वहां अमृता से मिलोगे जिसने वारिस शाह नज़्म लिखी थी? मैंने कहा, "हां, जरूर मिलूंगा। तो वो बोला, मैं और तो कुछ नहीं दे सकता, हो सके तो ये केले उसे मेरी तरफ से दे देना। मैं समझूंगा मेरा आधा "हज़" हो गया। " अब इस प्यार का अमृता क्या जवाब दे सकती थी? इस से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अमृता शख्शियत और उनकी लोकप्रियता क्या रही होगी? इस अवसर पर याद आता है साहिर का ही लिखा, जयदेव का संगीतबद्ध किया, रफी साहब का गाया और फिल्म - "मुझे जीने दो 1963" का ये अमर गीत -
अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है,
रूह गंगा की हिमाला का बदन आज़ाद है।
खेतीयां सोना उगाएं , वादियां मोती लुटाएं
आज गौतम की ज़मीं , तुलसी का बन आज़ाद है।
मंदिरों में शंख बाजे, मस्ज़िदों में हो अज़ान
शेख का धर्म और दीन - ए - बरहमन आज़ाद है।
लूट कैसी भी हो, अब इस देश में रहने ना पाए,
आज सबके वास्ते धरती का धन आज़ाद है।
साहिर तब तक बंबई यानी आज की मुंबई में जम गए थे और अमृता दिल्ली में। अमृता ने साहिर के प्रति अपने प्रेम को कभी छिपाया नहीं । उन्होंने कई बार इंटरव्यू के दौरान ऐसी बातें कहीं जो बताती हैं कि वे साहिर से बेपनाह प्रेम करती थी। जब कभी अमृता बंबई जाती तो साहिर उन्हें अपने घर "परछाइयां" में बुलाते और अपने दोस्तों से मिलवाते । उन्होंने कई गीत लिखे जो शायद अमृता को याद करके ही लिखे थे। एक बार का किस्सा है कि साहिर के संगीतकार मित्र जयदेव उनसे मिलने आए तो उन्होंने देखा कि एक गंदा सा चाय का कप उनकी मेज़ पर रखा था।जयदेव जी ने कहा, "लाओ इसे धो देता हूं।" साहिर जल्दी से लपके और बोले, "नहीं इसे धोना मत, इसी कप में अमृता ने चाय पी थी जब वह पिछली बार यहां आई थी।" तो ये आलम था दोनों के इश्क का। एक उसके सिगरेट के टुकड़ों को संभालकर रखती थी तो एक उसके होठों से लगाए हुए कप को सहेजकर रखना चाहता था। एक दूसरे की यादें उन्हें बड़ी अज़ीज़ थीं। यहां याद आता है साहिर का ही लिखा, फिल्म "गुमराह" का यह गीत जिसे गाया था महेंद्र कपूर ने और संगीत दिया था रवि ने -
आप आए तो खायाल - ए - दिल - ए - नाशाद आया,
कितने भूले हुए ज़ख्मों का पता याद आया !
आपके लब पे कभी अपना भी नाम आया था ,
शोख़ नज़रों से मोहब्बत का सलाम आया था,
उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था,
आपको देख के वो अहद-ए-वफ़ा याद आया !
रूह में जल उठे बुझती यादों के दिये
कैसे दीवाने थे आपको पाने के लिए
यूँ तो कुछ कम नहीं जो आपने एहसान किये
पर जो मांगे से न पाया वो सिला याद आया।
आज वो बात नहीं फिर भी कोई बात तो है
मेरे हिस्से में ये हल्की सी मुलाकात तो है
ग़ैर का हो के भी ये हुस्न मेरे साथ तो है
हाय किस वक़्त मुझे कब का गिला याद आया।
( एक अनुमान के अनुसार साहिर ने लगभग 122 फिल्मों के लिए कुल 733 गीत लिखे। उनके गीतों को आवाज़ देने वालों गायकों में रफ़ी साहब को 118, आशा जी को 223, लताजी को 160, किशोर कुमार को 69, महेंद्र कपूर को 61, गीता दत्त को 54, मन्ना डे को 38, मुकेश को 22, तलत महमूद को 20, सुधा मल्होत्रा को 20, सुमन कल्याणपुर को 18, हेमंत कुमार को 12 गीत गाने का अवसर मिला। ) साहिर ने आवाज़ दी होती तो अमृता सबकुछ छोड़कर उसके साथ चल दी होती। मुलाकातें होती रहीं दोनों अपनी-अपनी दुनियां में अलग-अलग जीते रहे। साहिर के प्रति अमृता के प्रेम को यहाँ इन शब्दों में बयां किया जा सकता है -
''तुम एक बार मुहब्बत का इम्तिहान तो लो,
मेरे जुनू मेरी वहशत का इम्तिहान तो लो।
सलाम-ए-इश्क़ पे रंजिश भरा पयाम न दो,
मेरे ख़ुलूश को फ़िरास-ए-हवस का नाम न दो,
मेरी वफ़ा की हक़ीक़त का इम्तिहान तो लो।
न तख़्त-ओ-ताज न लाल-ओ-गोहर की हसरत है,
तुम्हारे प्यार, तुम्हारी नज़र की हसरत है ,
तुम अपने हुस्न की अज़मत का इम्तिहान तो लो।
मैं अपनी जान भी दे दूँ तो ऐतबार नहीं,
के तुमसे बढ़ के मुझे ज़िंदगी से प्यार नहीं,
यूँ ही सहीं मेरी चाहत का इम्तिहान तो लो।''
उपरोक्त गीत फिल्म - ''बाबर'' के लिए साहिर के द्वारा लिखा गया था जिसे संगीत दिया था रौशन ने और गया था रफ़ी साहब ने। बहरहाल ज़िन्दगी यूँ ही चलती रही और अमृता साहिर का इंतज़ार करती रहीं कि वो पुकारे। इसी दरमियान उनकी ज़िंदगी में इंद्रजीत यानि इमरोज़ चुपके से दाखिल हुए। और इसी दरमियान अमृता को बम्बई से प्रकशित होने वाली पत्रिका ''ब्लिट्ज'' में साहिर और सुधा मल्होत्रा के बारे में छपी एक खबर पता चली एक गॉसिप थी कि साहिर को अपना नया प्यार मिल गया था। हालाँकि सुधा मल्होत्रा जो उस समय नयी गायिका के रूप में मशहूर हो रही थीं, उन्होने बाद में इस बात से इंकार किया और कहा कि अगर साहिर साहब मेरे बारे में ऐसा सोचते थे तो मैं अपने आप को खुशनसीब समझती हूँ। बात उन दिनों की है जब फिल्म ''दीदी'' के संगीतकार दत्ता नाइक बीमार चल रहे थे तो साहिर के बहुत इसरार करने पर सुधा जी ने इस फिल्म ''दीदी 1959 '' में उनकी ही लिखी इस नज़्म को सुरों में ढाला और स्वयं अपनी आवाज़ दी थी। पेश है वही अमर गीत -
तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको,
मेरी बात और है, मैंने तो मुहब्बत की है।
मेरे दिल की मेरे ज़ज़्बात की कीमत क्या है,
उलझे-उलझे से ख़यालात की कीमत क्या है,
मैंने क्यूँ प्यार किया तुमने न क्यूँ प्यार किया,
इन परेशान सवालात की कीमत क्या है ,
तुम जो ये भी न बताओ तो ये हक़ है तुमको,
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है।
ज़िंदगी सिर्फ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है,
ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार की जन्नत नहीं कुछ और भी है,
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनियां में,
इश्क़ ही एक हक़ीक़त नहीं कुछ और भी है ,
तुम अगर आँख चुराओ तो ये हक़ है तुमको,
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है।
तुमको दुनियाँ के ग़म-ओ-दर्द से फुर्सत न सहीं,
सबसे उल्फ़त सहीं मुझसे ही मोहब्बत न सहीं,
मैं तुम्हारी हूँ यही मेरे लिए क्या कम है,
तुम मेरे हो के रहो ये मेरी किस्मत न सहीं,
और भी दिल को जलाओ तो ये हक़ है तुमको,
मेरी बात और है मैंने तो मुहब्बत की है।
उन दिनों अमृता ऑल इंडिया रेडियो पर काम करती थीं। एक शख़्श रोज़ उन्हें आते - जाते देखता था। कभी बात करने की हिम्मत नहीं करता था, तो एक दिन अमृता ही उससे मिलने चली गयी। उसका नाम इंद्रजीत था। उससे मिलकर अमृता को जो अहसास हुआ उसे उन्होंने अपनी कविता ''शाम का फूल'' में लिखा था। और मजे की बात ये कि इमरोज़ स्कूल के दिनों से ही अमृता के दीवाने थे जब से उन्होंने अमृता का उपन्यास ''डॉक्टर देव'' पढ़ा था। उन्हीं दिनों में कहीं से उन्होंने अमृता का फोन नंबर ढूंढकर उन्हें फ़ोन भी कर दिया था। जब फोन पर अमृता ने पुछा, ''कौन?'' तो इंद्रजीत यानि इमरोज़ ने जवाब दिया, ''तुम्हारा देव'' . इतना कहकर झट से फ़ोन वापस रख दिया था। इमरोज़ चाहते थे कि अमृता को बस से ऑल इंडिया रेडियो ना जाना पड़े तो उन्होंने कहीं से 1500 रूपये का जुगाड़ करके एक स्कूटर ले लिया और पहुँच गये अमृता पास, बोले '' अब तुमको बस में नहीं जाना पड़ेगा। '' इमरोज़ याद करते हैं - कि अमृता उन्हें देखकर मुस्कुराईं जैसे वो पहले से ही तैयार थीं उनके साथ चलने को। इसी समय अमृता ने इमरोज़ से अपनी किताब ''आखिरी ख़त'' का कवर डिज़ाइन करवाया था। यह आखिरी ख़त उन्होंने साहिर के नाम लिखा था पर किताब में कहीं इसका जिक्र नहीं था। इमरोज़ अमृता से उम्र में लगभत दस साल छोटे थे। इमरोज़ उस समय एक उभरते हुए पेंटर थे। वे एक संपन्न घर से ताल्लुक रखते हैं। यहाँ लगभग 1958 का साल रहा होगा। उन दोनों के उस वक़्त के अहसास को साहिर के ही शब्दों में इस गीत के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है जो उन्होंने फिल्म ''वक़्त 1965 '' के लिए लिखा था। इसके संगीतकार थे रवि और इसे आवाज़ दी थी - आशा भोसले ने -
चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है, आँखों में सुरूर आ जाता है,
जब तुम मुझे अपना कहते हो, अपने पे गुरुर आ जाता है।
तुम हुस्न की खुद एक दुनिया हो, शायद ये तुम्हे मालूम नहीं,
महफ़िल में तुम्हारे आने से, हर चीज़ पे नूर आ जाता है।
जब तुमसे मुहब्बत की हमने, तब जा के कहीं ये राज़ खुला,
मरने का सलीका आते ही, जीने का सऊर आ जाता है।
इस सब के बावजूद अमृता साहिर को चाहती रहीं। अमृता की उँगलियाँ हरदम कुछ न कुछ लिखती रहती थीं। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि जब मैं इमरोज़ के पीछे उसके स्कूटर पर बैठकर रेडियो स्टेशन जाया करती थी तो उसकी पीठ पर उंगलियों से साहिर - साहिर लिखा करती थी। इमरोज़ को साहिर और अमृता के बारे में सब पता था पर उसे कोई ऐतराज़ न था। वह तो बस ये जानते थे की उन्हें अमृता से प्यार था। अमृता जो सोचती थी, इमरोज़ बिना कहे उसे अपनी पेंटिंग में उतार देते थे। वह अमृता की हर ख्वाहिश पर जान छिड़कते थे। इमरोज़ से मिलने के बाद अमृता की ज़िंदगी जैसे फूलों का गुलशन हो गयी। उनका कैरियर बहुत ऊंचाई पर पहुँच गया। उन्हें देश -विदेश से अनेकों निमंत्रण मिलने लगे। उन्हें (लगभग) 1958 में साहित्य अकादमी, 1969 में पद्मश्री, और 1982 में ज्ञानपीठ पुरुस्कार मिला। वे 1986 से 1992 तक राज्य सभा सदस्य भी रहीं। विदेशों में भी कई पुरुस्कार उन्हें मिले। 1960 में अपने पति से अलग होने के बाद, इमरोज़ ही उनका सबकुछ हो गए। वे अमृता की हर बात का ध्यान रखते थे। अमृता के बच्चों को स्कूल छोड़ने भी वही जाते थे।
आदमी और औरत अच्छे दोस्त भी हो सकते हैं इस बात को अमृता और इमरोज़ ने दुनियां के सामने साबित कर दिया था। एक बार साहिर दिल्ली आये तो अमृता को उस होटल में बुलाया जहां वे रुके हुए थे। अमृता बेझिझक इमरोज़ के साथ साहिर से मिलने पहुंची। साहिर समझ गए कि अमृता को एक नया दोस्त मिल गया है। तीनो बैठे रहे, बातें करते रहे। अमृता और इमरोज़ ने तो शराब नहीं पी लेकिन साहिर शराब पीते रहे। इनके आने के बाद साहिर ने एक नज़्म लिखी जिसे फिल्म - ''दूज का चाँद'' में रफ़ी साहब ने संगीतकार रौशन की संगीत निर्देशन में गया था। पेशे खिदमत है वही ग़ज़ल -
''महफ़िल से उठ जाने वालों, तुम पर क्या इलज़ाम,
तुम आबाद घरों के वासी, मैं आवारा और बदनाम ,
मेरे साथी खाली ज़ाम !
दो दिन तुमने प्यार जताया, दो दिन तुमसे मेल रहा,
अच्छा ख़ासा वक़्त कटा और अच्छा ख़ासा खेल रहा ,
अब उस खेल का जिक्र ही कैसा, वक़्त कटा और खेल तमाम।
तुम दुनियाँ को बेहतर समझे, मैं पागल था ख़्वार हुआ,
तुमको अपनाने निकला था, ख़ुद से भी बेज़ार हुआ ,
देख लिया घर फूंक तमाशा, जान लिया अपना अंजाम।
इस घटना को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे साहिर को बड़ा सदमा लगा था - अमृता को इमरोज़ के साथ देखकर। पर अमृता क्या करतीं ? वे तो साहिर के लिए पूरी दुनियां छोड़ने को तैयार थीं पर साहिर ने पुकारा ही नहीं। वे जान गयीं थीं कि साहिर कभी नहीं पुकारेंगे, बस दूर से ही देखते रहेंगे। हालाँकि इसके बाद भी दोनों मिलते रहे। इसके बाद एक बार इमरोज़ ने अमृता से पुछा - मेरा तुम्हारे जीवन में क्या स्थान है और साहिर का क्या ?'' तो अमृता ने कहा - '' साहिर मेरे लिए जैसे प्यार का आसमान है और तुम जैसे मेरे घर की छत ! और एक औरत सर पर छत की तलाश करती है, और मजे की बात ये है कि छत भी तो आसमान में ही खुलती है। '' 8 जनवरी 1964 को दोनों ने एक साथ एक ही घर में परन्तु अलग - अलग कमरों में रहना शुरू कर दिया। इससे पहले जब इमरोज़ ने कहा, '' जब एक साथ ही रहना है तो क्यों न एक घर में ही रहा जाय ? '' तो इस पर अमृता ने कहा,'' तुम पहले पूरी दुनिया घूम आओ और फिर भी यदि तुम्हें लगे की साथ ही रहना है तो मैं तुम्हें यहीं तुम्हारा इंतज़ार करते हुए मिलूंगी। '' इस पर इमरोज़ ने अमृता के कमरे के साात चाककर लगाए और कहा - " लो देख ली दुुनिया, मुुुझे अब भी तुम्हारे ही साथ रहना है । " सन् 1966 में इंद्रजीत अमृता के लिए इमरोज़ हो गए यानी उनका वर्तमान जैसे साहिर उनका बीता हुआ कल था।'' पर यह चमत्कार इनके ही जीवन में रहा कि वरतमान और भूतकाल दोनों साथ साथ चलते रहे। जब वे दोनों साथ साथ रहने लगे तो लोगों को लगा कि ये वक्ती जोश है जो थोड़े ही दिनों में ठंडा हो जाएगा और इमरोज़ जल्दी ही अमृता को छोड़कर चला जाएगा। उस वक्त अमृता 43 साल की और इमरोज़ 35 साल के रहे होंगे। ऐसे रिश्ते को लोग अमूमन अच्छी नज़र से नहीं देखते। लेकिन वो दोनों शायद किसी और ही दुनियां के लोग थे। इमरोज़ ने एक साक्षातकार में कहा है कि मैंने उस वक्त अमृता से कहा था, "देख मैं तेरी समाज हूं और तू मेरी समाज है।" इस वक़्त साहिर का ही लिखा फिल्म -"आंखें 1968" का यह गीत याद आ रहा है जिसे गाया था लता मंगेशकर ने और संगीत दिया था रवि ने -
मिलती है ज़िन्दगी में मोहब्बत कभी कभी,
होती है दिलवरों की इनायत कभी कभी।
शरमा के मुंह न फेर नज़र के सवाल पर,
लाती है ऐसे मोड़ पर किस्मत कभी कभी।
खुलते नहीं हैं रोज़ दरीचे बहार के,
आती है जानेमन ये क़यामत कभी कभी।
तन्हा ना कट सकेंगे जवानी (ज़िन्दगी) के रास्ते,
पेश आएगी किसी की जरूरत कभी कभी।
फिर खो न जाएं हम कहीं दुनियां की भीड़ में,
मिलती है पास आने की मोहलत कभी कभी।
इमरोज़ अमृता से इतना प्रेम करते थे कि अमृता अपने आप को उनसे प्यार करने से रोक नहीं सकती थी। वो दोनों एक ही मकान में रहते लेकिन अलग अलग कमरों में। दिन में जब इमरोज़ पेंटिंग बनाते तो अमृता सो रही होती थीं और अमृता अक्सर रात रात भर लिखती रहती थी। (उन्होंने लगभग सौ किताबें लिखी हैं) बीच बीच में इमरोज़ उनके लिए गरम चाय की प्याली रख आते थे। घर का काम भी दोनों मिलकर कर लिया करते थे। इमरोज़ सब्जी बना लिया करते थे तो अमृता रोटी, क्योंकि इमरोज़ से रोटियां गोल नहीं बनती थी। उनको जानने वाले कहते हैं कि ऐसा सामंजस्य मिया बीवी के बीच भी देखने को नहीं मिलता जैसा उनमें आपस में था।
अमृता भी इमरोज़ को उतना ही चाहती थी। 1958 के आस पास की बात है जब गुरुदत्त ने इमरोज़ को कम के सिलसिले में बंबई बुलाया तो अमृता को लगा जैसे साहिर की तरह ही बंबई उनसे इमरोज़ को भी ना छीन ले। सो इमरोज़ के जाने से तीन दिन पहले तक दोनों ने जी भरकर एक दूसरे के साथ वक्त बिताया। जहां जी चाहा घूमे, जो जी में आया खाया और जहां मन किया बैठे। लेकिन इमरोज़ के जाने के बाद अमृता बीमार हो गई और इधर इमरोज़ का भी बंबई में जी ना लगा। जब इमरोज़ को अमृता के बीमार होने का पता चला तो वो सब कुछ छोड़ छाड़ के दिल्ली चले आए और अमृता उन्हें उनका इंतजार करती हुई मिलीं। इमरोज़ को कैरियर में आगे बढ़ने के कई मौके मिले पर अमृता के साथ रहने के लिए इमरोज़ ने वो मौके छोड़ दिए। याद आता है साहिर का ही लिखा फिल्म शगुन 1964 का यह गीत जिसे गाया है रफी साहब और सुमन कल्यणपुर ने और संगीत दिया है खय्याम ने -
पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है,
सुरमई उजाला है चंपई अंधेरा है ।
दोनों वक्त मिलते हैं, दो दिलों की सूरत से,
आसमां ने खुश होकर रंग सा बिखेरा है।
ठहरे ठहरे पानी में गीत सरसराते हैं ,
भीगे भीगे झोकों में खुशबुओं का डेरा है।
क्यों न जाज़्ब हो जाएं इस हसीं नज़र में ,
रौशनी का झुरमुट है, मस्तियों का घेरा है।
अब किसी नज़ारे की दिल को आरज़ू क्यों हो,
जब से पा लिया तुमको सब जहान मेरा है।
शुरू के दिनो में इमरोज़ अमृता को स्कूटर से रेडियो स्टेशन छोड़ने जाते थे और बाद में कार से संसद भवन । वहीं कहीं बैठकर अपनी पेंटिंग्स बनाया करते थे। लोग उन्हें अमृता का ड्राइवर समझते और वे भी लोगों को कुछ नहीं बताते। जहां अमृता को जरूरत थी, इमरोज़ हर जगह उनके लिए हाजिर होते। बीच बीच में काम के सिलसिले में बंबई जाते और अमृता भी देश विदेश जाती - साहित्यिक समारोहों में भाग लेने तो वो एक दूसरे को खत लिखते । इन खतों का एक संकलन "दस्तावेज़ " नाम से इमरोज़ के ही संपादन में एक किताब के रूप में "श्री प्रकाशन" द्वारा 2012 में प्रकाशित किया गया है। आमतौर पर उनके पत्र कविताओं के रूप में ही होते थे। पेश है अमृता की आत्मकथा "रशीदी टिकट" में प्रकाशित एक पत्र जो उन्होंने इमरोज़ के नाम लिखा था।
"राही तुम मुझे संध्या वेला में क्यों मिले?
ज़िन्दगी का सफर खत्म होने वाला है,
तुम्हे मिलना ही था तो दोपहर में मिलते,
उस दोपहर का ताप तो देख लेते।"
ऐसे मौके पर याद आता है साहिर का लिखा फिल्म "चंबल की कसम 1980" का यह गीत जिसे गाया है रफी साहब और लता मंगेशकर ने और जिसे संगीत दिया है खय्याम ने-
सिमटी हुई ये घड़ियां फिर से ना बिखर जाएं,
इस रात में जी लें हम, इस रात में मर जाएं।
दुनियां की निगाहें अब हम तक न पहुंच पाएं,
तारों में बसें चलकर, धरती में उतर जाएं।
हालात के तीरों से छलनी हैं बदन अपने,
पास आओ के सीनों के कुछ ज़ख्म तो भर जाएं।
बिछड़ी हुई रूहों का ये मेल सुहाना है,
इस मेल का कुछ एहसान जिस्मों पे भी कर जाएं।
इसके थोड़ा पीछे चलते हैं यानि सन 1946 में। यह लाहौर के दिनों की बात है। अमृता साहिर को कदर चाहती थीं कि जब उनका बेटा ''नवरोज़'' होने वाला था तो उन्होंने कहीं अख़बार में पढ़ लिया कि माँ जिसके खयाल बुनती है बच्चे की शक्ल भी उसके जैसी हो जाती है। तो वह रात दिन साहिर का ख़याल बुनने लगी कि जब उनका बेटा हो तो वह साहिर जैसा दिखे। और कुदरत का कमाल कि नवरोज़ की शक्ल काफी हद तक साहिर से मिलती थी। साहिर की शायरी ही शायद अमृता की उनके प्रति दीवानगी का कारण थी। बाद में अपने बच्चे वाली बात जब अमृता ने साहिर को बताई तो साहिर ने हँसते हुए कहा, ''वैरी पुअर टेस्ट !'' दरअसल साहिर को हमेशा लगता था कि वे सुन्दर नहीं हैं। अमृता ''रशीदी टिकट'' में जिक्र करती हैं कि लाहौर में एक बार साहिर उनके घर आये और अमृता की बच्ची को गोद में लेकर कहानी सुनाने लगे - ''एक लकड़हारा था। वो रोज़ जंगल में लकड़ी काटने जाता था। एक दिन उसने वहां एक राजकुमारी को देखा। उसका जी चाहा कि वो राजकुमारी को लेकर भाग जाये। लेकिन था तो वो एक लकड़हारा ही ना ? वो बस उस राजकुमारी को देखता ही रहा। '' अमृता चुपचाप उन दोनों की बातें सुनती रही। आगे साहिर ने बच्ची से पूछा,'' तुम भी तो वहां थी ना ? तुमने भी तो उस लकड़हारे को देखा था ना ? '' बच्ची को ना जाने क्या सूझी कि उसने कहा, ''हाँ '' तो साहिर ने आगे पूछा,'' अच्छा बताओ वो लकड़हारा कौन था ?'' बच्ची ने कहा, '' वो आप थे। '' और वो राजकुमारी ? तो बच्ची ने कहा,'' म माँ। '' तो साहिर ने झट से कहा,'' देखो बच्ची सबकुछ जानती है !'' ऐसे में याद आता है फिल्म ''मुनीमजी 1955 '' का साहिर का ही लिखा यह गीत जिसे गया था किशोर कुमार ने और संगीत दिया था - एस डी बर्मन ने -
जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को,
और दे जाते हैं यादें तन्हाई में तड़पाने को।
ये रूप की दौलत वाले, कब सुनते हैं दिल के नाले,
तक़दीर न बस में डाले, इनके किसी दीवाने को !
जो इनकी नज़र से खेले, दुःख पाए मुसीबत झेले,
फिरते हैं ये सब अलबेले, दिल ले के मुकर जाने को।
दिल ले के दगा देते हैं, एक रोग लगा देते हैं,
हंस हंस के जला देते हैं, ये हुस्न के परवाने को।
''रशीदी टिकट'' में अमृता ने साहिर की मौत को कुछ यूँ याद किया है - '' 5 - 6 अक्टूबर 1980 को बुल्गारिया में डॉक्टर्स ने मुझे कहा था कि आपको दिल के दौरे का खतरा है। तो मैंने एक नज़्म लिखी - ''अज्ज आपणे दिल दरिया दे विच्च मैं अपणे फुल्ल प्रवाहे !''.... पर मुझे क्या पता था कि उसके लगभग बीस दिन बाद 25 - 26 अक्टूबर की रात उसके (साहिर के ) इस दुनिया से जाने की खबर आएगी। पर ये सच था। मुझे याद आया कुछ बरस पहले जब पहली बार दिल्ली में ''एशियन रॉयटर्स कॉनफेरेन्स'' हुई थी तो सब अदीबों और शायरों को अपने - अपने नाम से बैज दिए गए थे। लेकिन साहिर ने अपना बैज मेरे कोट पर लगा दिया था और मेरा बैज अपने कोट पर लगा लिया था। किसी ने कहा भी कि आप लोगों ने गलत बैज लगा लिए हैं, तो भी हम लोगों ने अपने बैज नहीं बदले। शायद मौत ने भी अपना फैसला उसी बैज को पढ़कर दिया था। जाना था मुझे पर चला गया साहिर !'' (अमृता प्रीतम के संसार की नीव अगर साहिर ने रखी थी तो इमरोज़ ने उसे अपने प्रेम से जीवन भर सींचा था। '') साहिर को याद करते हुए पेश है उन्हीं का लिखा गीत फिल्म - सज़ा 1951 से, जिसको संगीत दिया था एस डी बर्मन साहब ने और गाया था - लता जी ने -
तुम न जाने किस जहाँ में खो गए
हम भरी दुनियां में तनहा हो गए।
मौत भी आती नहीं, आस भी जाती नहीं,
दिल को ये क्या हो गया, कोई शय भाती नहीं।
लूट कर मेरा जहाँ छुप गए हो तुम कहाँ !
एक जां और लाख ग़म, घुट के रह जाये न दम,
आओ तुमको देख लें डूबती नज़रों से हम।
लूटकर मेरा जहाँ छुप गए हो तुम कहाँ !
जीवन के आखिरी दिनों में बढ़ती उम्र की बीमारियां अमृता को घेरने लगीं थीं। उन्हें चलने फिरने में तकलीफ होती थी। तब उन्हें नहलाना, खाना खिलाना, घुमाना फिराना जैसे रोजमर्रा के काम इमरोज़ ही किया करते थे। आखिर 31 अक्टूबर 2005 को 85 साल की उम्र में उन्होने आखिरी साँस ली। लेकिन इमरोज़ कहते हैं - ''अमृता उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती। वह अब भी मेरे साथ है। उसने सिर्फ जिस्म छोड़ा है साथ नहीं ! वो अब भी मिलती है, कभी तारों की छाँव में, कभी बादलों की छाँव में, कभी किरणों की रौशनी में, और कभी ख़यालों के उजालों में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप ! हमें चलते हुए देखकर, फूल हमें बुला लेते हैं। हम फूलों के घेरों में बैठकर एक दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं। उसने सिर्फ जिस्म छोड़ा है साथ नहीं !''और अमृता तो बहुत पहले ही इमरोज़ के नाम एक काव्यमय पत्र लिख गयीं थीं। पेश है इस सच्ची कहानी का अंत, अमृता प्रीतम जी की लिखी हुई उसी कविता के साथ -
''मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहाँ कैसे पता नहीं !
शायद तेरी कल्पनाओं की कल्पना बन
तेरे केनवास पर उतरूंगी या तेरे केनवास पर
एक रहस्य्मयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी।
मैं तुझे फिर मिलूंगी,
कहाँ, कैसे पता नहीं !
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलती रहूंगी।
या रंगों की बाँहों में बैठकर
तेरे केनवास पर बिछ जाउंगी।
पता नहीं कहाँ, किस तरह
पर तुझे जरूर मिलूंगी !
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है।
मैं पानी की बूंदें तेरे बदन पर मलूँगी।
और एक शीतल एहसास बन कर
तेरे सीने से लगूंगी।
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ ,
की वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा।
जिस्म ख़त्म होता है तो
सबकुछ ख़त्म हो जाता है।
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हों की तरह होते हैं।
मैं उन लम्हों को चुनूंगी ,
उन धागों को समेत लुंगी।
मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहाँ, कैसे पता नहीं
पर तुझे जरूर मिलूंगी।
(अमृता प्रीतम)








लाजवाब प्रस्तुति
ReplyDeletethank you very much
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