मैं क्या हूं? : कविता / आशा ! Kavygatha Online Magazine 15/04/23

काव्यगाथा ऑनलाइन मैगज़ीन  15  / 04 / 23 

22. मैं क्या हूँ ? कविता : आशा


मत पूछ मुझसे ये ज़िंदगी कि मैं क्या हूँ ,
समय के द्वारा लिखी हुई, उलझी हुई दास्तान हूँ। 

तेरे साथ भी अकेली हूँ, तेरे बाद भी अकेली हूँ,
तुझे समझ कर भी न बूझ सकी, ऐसी पहेली हूँ। 

तमाशाई सी ये ज़िंदगी, जिसकी मैं खुद दर्शक हूँ,
अपनी तकलीफों की, खुद ही चिकित्सक हूँ। 

दर्द की ख्वाहिश हूँ, खुद की नुमाईश हूँ,
बेजार सी है ज़िंदगी, जिसकी मैं फरमाईश हूँ। 

अधूरी इमारतों का, जैसे कोई खँडहर हूँ,
नाकाम इरादों का, घूमता हुआ बवंडर हूँ। 

एक राज हूँ, एक साज हूँ, बदला हुआ अंदाज़ हूँ,
जो गीत कभी सुना नहीं, मैं उसकी आवाज़ हूँ। 

मत पूछ मुझसे ये ज़िंदगी कि मैं क्या हूँ,
समय के द्वारा लिखी हुई, उलझी हुई दास्तान हूँ।  

21.  ख्वाहिश !  
कविता : पलक साबले, जबलपुर / बैतूल 

हर शख्श की ख्वाहिश मुकम्मल हो जाती,
तो क्या बात होती ,
ग़रीब के घर भी दौलत बेशुमार हो जाती,
न आँखों में कभी नमी होती,
न मुस्कराहट में कोई कमी होती। 

घर में नयी किलकारी गुंजी, 
माँ की आँखों में नमी थी ,
इस नन्ही पारी के अरमान पुरे कर पाऊं ,
बस यही एक माँ की ख्वाहिश थी।
 
एक घर से दूसरे घर की लक्ष्मी बन रही बेटी,
दुनिया की सारी खुशियां मिले उसे,
बस यही एक पिता की शवाहिश थी। 

अपने पिता को दिन रात करते देखा,
मुसीबतों से अकेले लड़ते देखा ,
अपने पिता का नाम रोशन करना,
बस यही एक बच्चे की ख्वाहिश थी। 

किसान के खेत की फसल हरी थी ,
फसल ने खुशहाली बिखेरी थी ,
खुशियों को किसी की नज़र न लगे,
बस यही एक किसान की ख्वाहिश थी। 

सालों पहले विदेश गया बेटा ,
माँ की आँखों में इंतज़ार था ,
इंतजार की घड़ी  जल्दी गुज़र जाये ,
बस यही बुढ़ापे में एक माँ की ख्वाहिश थी। 

जिसने अपनी ज़िंदगी अन्धकार में बीता दी ,
 एक उजाले की उम्मीद थी ,
उसकी नयी पीढ़ी का जीवन चमकता रहे,
यही उसकी ख्वाहिश थी। 

ज़िंदगी का पड़ाव बदलता गया ,
ख्वाहिशों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा,
हर ख्वाहिश मुकम्मल हो जाती, 
तो क्या बात होती। 
  
1. श्रीमती प्रीती फाटे ,बैतूल



कविता : उम्र का पड़ाव 

आज फिर वही दिन आ गया,
तिरतालीसवाँ सावन बीत गया। 
जवानी के वर्ष भी राई के पहाड़ की तरह ढह गए,
बुढ़ापे की दस्तक काया, मन, विचारों पर पड़ गयी। 

काया ढलती शाम की तरह हो गयी,
शरीर झुर्रियों की खान हो गया। 
बाल काले कम, सफ़ेद ज्यादा हो गए,
हाथ, पैर, और अब तो हौसला भी जवाब दे गया। 

मन कभी शांत होता, कभी बच्चों की तरह उछलता,
कभी आनंदित होता, कभी शोकाकुल होता। 
उम्र का ये पड़ाव न समझा जाता,
कभी क्रोध, कभी क्षमा का भाव चेहरे पर आता। 

भावों की अधीरता दिखती चेहरे पर,
मन में स्थिरता व् शांत भाव होता। 
विचारों में आया बदलाव,
धर्म, कर्म, अध्यात्म का हुआ प्रभाव। 
किसी विषय पर मत प्रकट करना,
हुआ आसान, जैसे पी एच डी की हो। 

२. कुमारी पलक साबले, जबलपुर / बैतुल



कविता : पिता का संघर्ष

सूरज की किरणे चांदनी को ओझल करने आयीं, 
उजाले की लौ पिता के जीवन में क्या रंग लायी?
परिवार की खुशियों में वह मुस्कुरा देते,
वह पिता ही हैं जो सबकुछ अकेले सह लेते। 
खुद के अरमानों को यूँ भुला दिया,
हमारे सपनों की खातिर, अपने आप को गला दिया। 
अपने लिए कभी कुछ न लिया,
हमने एक माँगा तो तीन चार दिला दिया। 
बुरी से बुरी परिस्थिति से अकेले लड़ लेते,
अपने परिवार पर दुःख की आंच न आने देते। 
इतनी जिम्मेदारियों के बावजूद, चेहरे पर न  शिकन होती,
हर मुश्किल इम्तेहान में, उनकी मुस्कान किसी मोती से न कम होती। 
महज़ हमें खुश देखकर वो भी मुस्कुरा देते,
वह पिता ही हैं जो हमारे दामन को खुशियों से भर देते।  

3. श्रीमती अरूणा पाटनकर, बैतूल




कविता : क्या खूब अवसर आया है!

क्या खूब अवसर आया है,
होली संग महिला दिवस लाया है।
राग द्वेष ईर्ष्या की भावनाएं, 
जलाएंगे इस होली में यही कामनाएं।
प्रेम शांति का रंग मिलाकर,
करेंगे एकता की साकार कल्पनाएं।
कल्पनाएं वे भी करेंगे साकार, 
जो स्त्री की सोच को देगी आकार।
प्रेम, विश्वास, प्रशंसा के तिलक में होगा,  
कुछ करने का विश्वास,  तभी तो इस होली 
महिला दिवस मनेगा कुछ खास।
मत काटना हरे भरे पेड़ों को होली के नाम पर,
मत दिखाना दिल किसी का होली के नाम पर।
एक दिन मान देकर न करना 
किसी महिला का अपमान,
जननी है वो जगत की, चोट न खाए 
कभी उसका स्वाभिमान।
धूल, मिट्टी, कीचड़, अपशब्दों का 
होली पर न करना तुम प्रयोग,
होली के सुंदर गीत गाना, 
जिसमें युवा पीढ़ी भी हंसकर करे सहयोग,
लाडली बेटी खूब पढ़ेगी, नाम करेगी, 
देंगे उसे हम संस्कार अनमोल।
इस महिला दिवस प्रण करें, 
किसी बेटी की आंखों से न गिरें मोती अनमोल।
प्रकृति भी क्या खूब सजी, 
पलाश के सुर्ख लाल फूलों संग,
इस होली में रंग दो हर बिटिया को 
देकर आशीर्वाद का रंग।
सार्थक होगी तभी होली 
और सार्थक महिला दिवस,
पूर्णिमा के चांद से चमके, 
सबकी दुआओं से यह काली अमावस,
मन की कालिमा दूर होगी और 
दामन में स्त्री के होंगे तारे।
क्या खूब होली संग महिला दिवस मनाया,
बरबस कह उठेंगे सारे, बरबस कह उठेंगे सारे।

4. श्री दिनेश खांडेकर, बैतूल



ग़ज़ल 
एक दिन की बारिश में, 
भीगी जो ज़िन्दगी थी,
वो दिन तो अब गुज़र गए, 
वो यादें भीगी भीगी हैं।

अफसोस अब भी होता है, 
अपने घर को ना बचा सका,
उस वक्त की उखड़ी ज़मीन,
आज तक भीगी - भीगी है।

आज भी बरसा मस्ती में,
बादल यहां घनघोर सा,
कुछ पल लगा के जैसे,
छत, कल से भीगी भीगी है।

कुछ जेहन में डर सा,
बसाकर चल गुजरी,
वो बरसात "फकीर" की आंखों में,
बरसों से भीगी भीगी है।

5. श्री विजय कुमार  पटैया, बरहापुर




कविता : नया दिन नई रात!

रात गई, वो बात गई,
नया दिन, ये रात नई।
बाईस के बाद तेईस,
लाया है सौगात नई।
भूलें सब पुरानी बातें,
करें अब मुलाकात नई।
नए संकल्पों से,
करेंगे शुरुआत नई।
नेता करेंगे जनता से,
वादों की बरसात नई।
कुछ टूटेंगे पुराने दल,
होगी शुरू जमात नई।
दुल्हन के घर पहुंचेगी,
दूल्हे संग बारात नई।
आंखों का चश्मा बदलो,
सूरज लाया प्रभात नई।

6. कुमारी श्रृष्टि देशमुख, जीन(बैतूल)



कविता : वक्त बदलता रहता है!

वक्त बदलता रहता है,
कभी मुस्कुराना सीखाता है,
कभी दुखी कर देता है।
कितना भी पकड़ो, फिसल जाता है,
वक्त है न बदलता रहता है।

कभी ज़िन्दगी बदल देता है,
कभी किस्मत बदल देता है,
कभी लोग बदल जाते हैं,
वक्त है न बदलता रहता है।

कोई पास रह जाता है,
कोई दूर चला जाता है,
कोई अपनों से रूठ जाता है,
वक्त है न बदलता रहता है।

ज़िन्दगी है ही ऐसी,
क्या होगा ....?
कैसे होगा ....?
कब होगा .....?

पर इसकी फिक्र छोड़,
जो भी है,
जो भी हो रहा है,
उसे जाएं ......

ना हो हताश,
ये वक़्त है गुज़र जाएगा,
सुनहरा कल भी आएगा,

बस, तू लड़ना सीख,
तू जीतना सीख,
बस, चलता चल ......
खुशियां भी दस्तक देंगी,
बस चलता चल .......
वक्त है .........

7. श्रीमती दीपा मालवीय "दीप", बैतूल



कविता : मेरे सपने
चंद आंखों से देखे थे मैंने सपने,
आंखें खुली तो न थे वो मेरे अपने।

बैठ में सोचूं, कब, कैसे होंगे वो पूरे?
महसूस हुआ, वक्त लगा हो जैसे सरकने।

उमंगों के पंख फैलाए, गगन में मैंने देखा,
आसमां भी जैसे बुला रहा हो मुझे।

ऊंचाइयों तक पहुंची जैसे ही मैं उड़कर
लगा मेघ लगे रास्तों को ढकने।

आत्मविश्वास का दीप जलाकर में,
उड़ चली अंधकार से दूर।

एक एक सपने पूरे हो चले हों जैसे,
ज़िन्दगी का गुलशन लगा है देखो महकने।

चंद आंखों से देखे थे मैंने सपने,
आंख खुली तो न थे वो मेरे अपने।

8. श्री चेतन सिकरवार , बैतूल 




ग़ज़ल ! 
होंगे तन्हा, अश्क़ आँखों से बहेंगे शायद,
जब कभी आप यूँ हमें याद करेंगे शायद। 

आप कह दें तो चले जायेंगे हम दूर कि फिर,
न सुनेंगे, न कहेंगे, न दिखेंगे शायद। 

हम चले जायेंगे जब आपकी महफ़िल से तो आप,
लौट आओ, आ भी जाओ, ये कहेंगे शायद। 

तू न कर फिक्र ज़माने की, तू बस चलता चल,
जो हैं जलते, वो तो वैसे भी जलेंगे शायद। 

9. श्री लोकेश अड़लक,  सारनी (बैतूल)




भक्ति  गीत !
बैठकर तेरे चरणों में,  मैं लीन होना  चाहता हूँ ,
खोकर तुझे मैं अनंत में, मैं शून्य होना चाहता हूं।
बांधकर तेरी भक्ति में, मै मुक्त होना चाहता हूं,
साए में तेरे रहकर,  मैं तेरा होना चाहता हूं।
ले मस्तक पर विभूति तेरी,  मैं भश्म होना चाहता हूं,
और हे शिव पाकर तुझको,  मैं तुझमें खोना चाहता हूं।
उलझकर तेरी जटाओं में,  मैं गंगा होना चाहता हूं,
पीकर विष का प्याला,  मैं अमृत होना चाहता हूं।
छोड़कर मोहमाया के भरम,  मैं जोगी होना चाहता हूं,
हो जाऊं तेरी भक्ति में मगन ऐसा,  मैं भक्त होना चाहता हूं।
शीतलता हो मुझमें तेरे ललाट की,  मैं चन्द्र होना चाहता हूं,
भूलकर अस्तित्व को अपने,  
मैं तेरे चरणों की धूल होना चाहता हूं।

10. आशा, बैतूल



कविता : ज़िन्दगी का हिसाब!
हिसाब करते करते, ज़िन्दगी का
अन्तिम शून्य आ जाएगा,
न कुछ जुड़ेगा, न कुछ घटेगा,
बस शून्य से ही गुणा हो जाएगा।
भाग का हाल तो पूछो ही मत
इस ज़िन्दगी में,
भाग से भाग कर जाना तो
संभव ही नहीं हो पाएगा।
इसलिए कहती हूं, मत उलझो
ज़िन्दगी के हिसाब में,
जो आ रहा है, उसे आने दो,
जो जा रहा है उसे जाने दो।
जीने के लिए कितना भी कमाओगे,
कुछ साथ नहीं जायेगा,
चाहे जियो जैसे भी ज़िन्दगी,
पर अंतिम परिणाम तो शून्य ही आएगा।

11. कुमारी झलक परिहार, बैतूल



कविता : नया सवेरा

इन पत्तों को देखकर कुछ लिखती हूं,
इन हवाओं से मैं कुछ सीखती हूं।
मन में उठते तूफानों को, 
इन्हीं तारों के सहारे रोकती हूं।
ठहराव कहां है इस जीवन में,
मैं अपनी मंजिल का पता पूछती हूं।
खुद का सफर खुद ही का सहारा,
बाहर मेरे लिए है एक नया उजियारा।
चली जाती हूं किसी अनजानी राह पर,
कि जब सफर हो खत्म, तो हो नया सवेरा।

12. कुमारी करिश्मा कापसे, बैतूल



कविता : संघर्ष !
कर संघर्ष तू चलता चल,
ये है पथरीला पथ, तू बढ़ता चल।
आज है मुश्किल कर पार तू,
कल भी निकलेगा सूरज नया,
कर संघर्ष तू चलता चल।
कुरुक्षेत्र का मैदान है यह,
तू लड़ता चल ।
थाम न अपने पांव, 
घाव पर नमक लगा,
दर्द को अपना ले, 
कर संघर्ष तू चलता चल।
कर हौसला बुलंद तू चलता चल ।
है उत्सव का ये चिर विरह
तू चलता चल।
ना रुक, ना थम, निडर बन,
तू चलता चल।
ये है पथरीला पथ,
तू बढ़ता चल।
कर संघर्ष तू चलता चल।

13. श्रीमती अनुराधा विशाल देशमुख "अनुविश"



कविता : दहलीज !
एक बेटी लांघकर आती है, 
अपने बाबुल की दहलीज,
और रखती है पग ससुराल की दहलीज पर।
यहीं से बदल जाती है कहानी उसकी,
नमक, मिर्ची से लेकर सबके स्वाद बदल जाते हैं,
अपना लेती है परंपरा वहां की।
ढल जाती है वहां के माहौल में,
रौनक आ जाती है उस घर में, 
उसकी उन्मुक्त हंसी से।
भूली बिसरी यादों के संग,
अपना लेती है अपने पिया का हर रंग।
थोड़े दिनों तक ससुराल, बाद में 
बन जाता है उसका अपना घर।
पत्नी, बहु, भाभी, मा, चाची बन, 
संभालती है हर रिश्तों को, संजोती है 
वहां का हर कोना अपने हाथों से।
अपनी हर मन्नत के धागों में, 
हर उपवास पूजा में,  मांगती है 
उस घर की सलामती की दुआ।
साथ ही अपने बाबुल को भी 
याद रखती है हर पूजा में।
जहां पल पल देखती है, 
अपने बच्चों का बचपन, खुश होती है 
अपने पोतों की शरारतें देखकर।
अपने कई अरमान ख्वाहिशें भी 
पूरी करती है उसी घर में, और फिर 
करती है उस दहलीज को पार ....
जब वह अंतिम सफर के लिए निकलती है ....
फिर कैसे लोग कहते हैं, बेटियों के घर नहीं होते,
और उस अन्तिम सफर में, पहनकर निकलती है
अपने बाबुल की साड़ी ....
एहसास करा जाती है कि वह आज भी,
उस घर के लिए पराई नहीं है ....

 14.  श्री त्रिलोक शर्मा , हरदा 



गीत : नेह की देवी !

द्वार पर मन के तुम्हारे, एक याचक मैं अकिंचन,
हूँ खड़ा एक आस लेकर, चेतना से दीप्त है मन। 
तुम युगों की चेतना का एक बस संज्ञान दे दो ,
नेह की देवि ! मुझको नेह का वरदान दे दो। 

भोर की एक डोर पकड़े , जन्म कितने जी लिया हूँ ,
एक अमृत पान करने, गरल  वसुधा का पिया हूँ। 
घोर तम की इस निशा में, एक बस दिनमान दे दो,
नेह की हे देवि! मुझको नेह का वरदान दे दो। 

आसमां पर यह चमकता सूर्य हमसे कह रहा है,
प्रति सुबह, दोपहर, संध्या, रोज वह भी सह रहा है। 
हे प्रिये नित नव सृजन का, स्वल्प सा अवदान दे दो,
नेह कि हे देवि ! मुझको नेह का वरदान  दे दो। 

एक दिन यह सूर्य जीवन, अस्त होकर ही रहेगा,
लाख हम कोशिश करें, नग नूर खोकर ही रहेगा। 
अस्त होते सूर्य को निज गोद में अवसान दे दो ,
नेह की देवि ! मुझको नेह का वरदान दे दो।

15. श्री बसंत कावड़े , बैतूल 



लोक गीत (गोंडी) : नशा मुक्ति पर आधारित !

कल दा किस्सा केंजा रो भैया, कल दा किस्सा केंजा। 
दे रेना रेना रेना रो भैया , कल दा किस्सा केंजा।

कल उन के आता नुकसानी , सगा समाज ते आतु बदनामी,
कल किता सबतुन बर्बाद रो भैया , कल दा किस्सा केंजा। 

कल  ऊंजी वोनाये भाला हल्ले आयो, नशा किसी काम हल्ले बने मायो,
नशा ते बांगे हल्ले दिशो रो भैया, कल दा किस्सा केंजा। 

कल ऊंजी नेली कोड़ी डूबे माता, छवंग छविनुग कभी हल्ले उड़ता,
बिडंदा आता बर्बाद रो भैया , कल दा किस्सा केंजा। 

बसंत ता हैन्दू इंदाना, कल हल्ले मिकून ऊंडाना ,
कल उंडाना छोड़े किम रो भैया, कल दा किस्सा केंजा। 
 
16. . श्री दीपक मेटकर, इंदौर 



कविता : समझौता !

कभी  जीवन के अपने सफर में,
अनंत आकाश के साये से भरे हुए,
विचारों में खोते हैं , डूबते हैं और 
फिर किनारे निकल दौड़ पड़ते हैं। 

दोबारा सफर जीवन का शुरू हो जाता है,
एक गहराई लिए और आँचल में समेटे,
अपने मन को जो फिर जीने के लिए 
नई आवाज़ लगाता है। 

शायद इसी को अपनी हार, 
जीवन के प्रति कहेंगे, पर कभी 
जीवन भी तो हारे, हमसे समझौता करे,
हमारे जीवन का जो हम चाहते हैं। 

17 . श्री लक्ष्मण खंडागड़े , नागपुर 



ग़ज़ल !
यूँ ही नहीं कोई तन्हाइयों का सबब होता ,
तेरा आना, आकर चले जाना, अगर ये सब न होता। 

ज़िंदगी गुजर ही जाएगी तेरे बगैर ,
तुम साथ रहते तो कुछ और होता। 

अब कोई फ़िक्र नहीं आज की, कल की,
तूने ये समझा दिया कुछ आज, कुछ कल नहीं होता। 

बगिया महकेगी , भौंरे फिर गुनगुनायेंगे ,
पतझड़ आने से बर्बाद कोई उपवन नहीं होता। 

सफर वो जिसमें मंजिल की फ़िक्र न हो,
मुश्किलों के बगैर आसान, कोई सफर नहीं होता।

१८ .  श्री प्रहलाद परिहार, बैतूल 



फ़िल्मी किस्सा : के आसिफ, बड़े गुलाम अली और मुगल ए आज़म !
                    कहा जाता है कि  जब फिल्म मुगले आज़म बन रही थी तो नौशाद जो की उस फिल्म के संगीतकार थे उनसे के आसिफ ने पुछा की फिल्म में तानसेन को ठुमरी गाते हुए दिखाना है तो कौन से गायक से इसे गवाया जाय ? नौशाद ने कहा आज के तानसेन तो एक ही हैं और वो हैं क्लासिकल सिंगर बड़े गुलाम अली पर वो फिल्मों में गाते नहीं है।  इस पर के आसिफ ने कहा आप मुझे उनसे मिलवा दीजिये।  बड़े ही झिझक के साथ नौशाद और के आसिफ बड़े गुलाम अली साहब से मिलने पहुंचे।  पहले नौशाद साहब उनसे मिलने अंदर गए। उन्होंने सारा किस्सा उन्हें सुनाया जिस पर गुलाम अली साहब बोले तुम तो जानते हो मैं फिल्मों में नहीं गाता।  इस पर नौशाद साहब ने कहा बड़ा पागल डायरेक्टर है साहब मानने को तैयार नहीं है।  तो बड़े गुलाम अली साहब बोले मैंने अच्छे अच्छे पागल देखे हैं मैं इसका भी इलाज़ कर दूंगा।  मैं इतने पैसे बोलूंगा कि वो सुनते ही भाग जायेगा। नौशाद बोले ये ठीक रहेगा। 
                 अब के आसिफ बड़े गुलाम अली साहब के सामने हाथ में सिगरेट लिए हाज़िर हुए और उन्होंने वही बात कही कि वे फिल्मों में नहीं गाते हैं। इस पर के आसिफ बोले गाना तो आप ही गाएंगे बस फीस बोलिये ! इस पर अली साहब ने नौशाद जी की तरफ देखा और बोले तो ठीक है पच्चीस हज़ार रूपये लगेंगे। के आसिफ बोले "दिए" और उन्होंने पेशगी उनके हाथ में रख दी। खान साहब देखते रह गये। उस समय बड़े बड़े गायक हज़ार पांच सौ रूपये से ज्यादा नहीं लेते थे। उस समय फिल्म मुगल ए आजम को बनाने में के आसिफ की सारी जमा पूंजी खत्म हो गई थी और उन्होंने अपना मकान भी गिरवी रख दिया था। यदि फिल्म न चलती तो वे पूरी तरह बर्बाद हो जाते। परन्तु फिल्म कला के प्रति अपनी दीवानगी में उन्होंने सब दाव पर लगा दिया था। और उनकी किस्मत रंग लाई । फिल्म खूब चली और जहां लोग केवल लाखों कमाते थे उन्होंने करोड़ों रुपए कमाए।
                 
१९.  श्रीमती कविता हिरानी, बैतूल 



लेख : ध्यान का महत्त्व 
                जीवन में भौतिक साधनो की तो आवश्यकता होती है परन्तु साथ साथ आध्यात्मिकता का भी बहुत अधिक महत्त्व है जीवन के हर क्षण को आनंदमय बनाने के लिए।  उत्साह व्यक्ति की कार्य क्षमता को बढ़ाता है। उत्साही व्यक्ति के लिए कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाते हैं। उत्साह के लिए आवश्यक है आशा और आत्मविश्वास। इस आशा और आत्मविश्वास को बनाने और बढ़ाने के लिए जिस प्रक्रिया को किया जाता है उसे  ही ध्यान कहा जाता है। 
                जीवन में सरलता बनाये रखना अत्यंत कठिन है, परन्तु इंसान चाहे तो उसका जीवन जल के समान सरल एवं पारदर्शी हो सकता है , अर्थात वह जिस पात्र में उतरे उसी के आकार में ढल जाये।  यह सब ध्यान के माध्यम से ही हो सकता है। ध्यान करने से इंसान  का मन शांत एवं सरल हो जाता है। ध्यान करने के कई तरीके होते हैं। प्रत्येक समुदाय के लोग अपने अपने विभिन्न तरीकों से ध्यान करते हैं।  सरल भाषा में कहा जाय तो मन और शरीर से परे रहकर आध्यात्मिकता की ओर  अग्रसर होना ही ध्यान है। 

20. डा निरुपमा सोनी, बैतूल 



कविता : तेरा मेरा नाता !

तेरा मेरा नाता,
जैसे बारिश और सावन ,
जैसे फूल और मधुबन,
जैसे दीप और बाती, 
जलने से रौशनी छा जाती। 
जैसे सूरज और किरण ,
चमक उठे कण कण ,
जैसे सुई और धागा ,
एक हो जाये हिस्सा आधा। 
जैसे चाँद और चाँदनी ,
जैसे लेखक और लेखनी,
जैसे सुर और संगीत,
जैसे राधा की प्रीत। 

21. श्रीमती पुष्पा पटेल, बैतूल



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