बचपन : एक यादगार कहानी ( Chilhood : A Memory)
बचपन : एक यादगार कहानी!
प्रहलाद परिहार

वैसे तो अच्छे बुरे सभी तरह के दिन मैंने देखे। सभी का आनंद उठाया। ससुराल में माँ के साथ अच्छा व्यवहार न होता था सो माँ मुझे अक्सर मामा के घर छोड़ देती थी। मेरी बड़ी मौसी मेरी देखभाल माँ की तरह करती थी। आश्चर्य की बात है पर मुझे सब याद है। मैं बहुत छोटा था जब मौसी मुझे अपने साथ खेतों में ले जाती थी। बारिश का मौसम होता तो चटाई की बनी हुई बरसाती में सुरक्षित जगह पर मुझे बैठाकर मौसी खेतों में काम करती थी और बीच -बीच में मुझे भी देख लिया करती थी।
बड़े मामा मुझे बहुत प्यार करते थे। जब मैं पांच साल का हुआ तो वो मुझे भी अपने साथ गाँव के स्कूल ले जाते थे। वह स्कूल एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित था। अब वहां उसके अवशेष भी नहीं बचे हैं। परन्तु उसके थोड़ा ऊपर जो माता का मंदिर था, वह जरूर पक्का बन गया है। परन्तु एक ज़माने में वह स्कूल ही आस पास के गावों की शान हुआ करता था। मैं आज भी वहां जाता हूँ तो उन दिनों की तस्वीर मेरे जेहन में ताजा हो जाती है। मामा पांचवी कक्षा में पढ़ते थे और मुझे पहली में बिठा देते थे। वहां मेरी अक्सर एक लड़के से लड़ाई हो जाती थी और बीच की छुट्टी में मेरी वजह से मामा और उस लड़के की बड़ी बहन के बीच बहस हो जाती थी। आस पास के गावों में उस लड़की के बराबर कोई सुंदर न था। लाड़ प्यार में मैं बहुत बिगड़ गया था। अक्सर कोई न कोई शरारत करता रहता था।
मामा अक्सर मुझे कमर पर बैठाकर नदी के उस पार ले जाते थे जहाँ उनके बहुत सरे खेत थे। वे अक्सर मुझे कृष्ण भगवान का एक भजन सुनाने को कहते थे। गाने का शौक मुझे बचपन से ही था। मामा और कुछ दूसरे लोग नवम्बर - दिसम्बर के महीनो में जब दूर खेतों की रखवाली (जागल ) के लिए जाते समय भूत - प्रेत की बात किया करते थे तो डर के मारे मैं सबके बीच आकर चलने लगता था।
जब मैं करीब चौदह बरस का था तो बड़े मामा की शादी की रात बारात के साथ मैं खूब नाचा था। मामी देखने में बहुत सुंदर थी जैसे अमूमन गांव की लड़कियां होती हैं। वे मुझसे बहुत स्नेह रखती थीं। उनकी नयी नयी शादी के बाद, उन्हें मायके से लाने के लिए मुझे ही भेजा गया था। मामी का गावं पास में ही था। मैं बड़ी शान से उन्हें लाने गया था। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। परन्तु संसार में कभी कुछ एक सा नहीं रहता। आज किसी को देखकर कहना मुश्किल है कि कल वह कितना सुन्दर था। केवल कुछ दस बारह वर्षों में ही आदमी की शक्लो सूरत बदल जाती है। पुराना सारा आकर्षण जाता रहता है। परिवार बढ़ने के साथ स्नेह भी बट जाता है। एक समय नाना के घर खूब दूध - दहीं और घी हुआ करता था। मैं जमकर खाता - पीता था। आज तो शुद्ध घी के दर्शन दुर्लभ हैं। तब लोगों को पैसों के प्रति उतना मोह नहीं था। लालच कम था। अब नाना नहीं रहे। माँ भी नहीं रही। नाना के जाने के सिर्फ एक साल बाद माँ भी अचानक हम सब को छोड़ कर चुपचाप चली गयीं। दोनों ही अपना जीवन शान से जिए। सबके लिए कुछ ना कुछ किया। नाना की मुक्ति जून की एक सुबह हुई तो माँ उसके अगले साल आठ जुलाई की शाम हमसे बिछड़कर अपने पिता के पास चली गई। जब उनकी मृत्यु का समाचार फैला तो भारी संख्या में लोग जमा हुए। ऐसी अंतिम यात्रा कम ही देखने को मिलती है। उन्हें कांधा देने वालों की होड़ लगी थी। वे एक महान आत्मा थे। माँ बहुत सफाई पसंद थीं। उनके अंतिम संस्कार में पुरे समय बारिश होती रही। परन्तु जब नाना की चिता जल रही थी तो धूप तप रही थी और जब लोग लौटने लगे तो अचानक आकाश में बादल घिर आये और तेज बारिश हुई जो लगभग दो घंटा होती रही। ऐसा लगा मानो नाना अपने साथ सारा कूड़ा करकट भी बहा ले गए। सारा गांव, गलियां, खेत सब धुल गया, पवित्र हो गया।
सब भाई बहन अब बड़े हो गए हैं। हम सभी भाइयों ने अपना - अपना संघर्ष किया है। आज सब अपनी - अपनी, अलग - अलग दुनियां में जीते हैं। सबका ध्यान अपनी भौतिक उन्नति पर लगा हुआ है। शायद इसलिए क्योंकि बचपन में हम सब ने बहुत कम सुख - सुविधाएं देखी थी । हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी उसी तरह जियें। इसलिए एक दौड़ सी लगी है। मैंने अपने छोटे भाई एवं बहन को गोद में खिलाया है। ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। माँ की कमी तो हमेशा रहेगी। भगवान् का धन्यवाद कि पिता अभी तक हमारे साथ हैं।
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