झलकारी बाई और लक्ष्मी बाई : दो कवितायें Jhalkari Bai aur Lakshmi Bai

1. झलकारी बाई ! (कविता : प्रहलाद परिहार )

                झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830  को तथा वीर गति 4 अप्रैल 1857  को प्राप्त हुई थी। वे झाँसी की  रानी लक्ष्मी बाई की नियमित सेना में महिला शाखा '' दुर्गा दल '' की सेनापति थीं तथा वे लक्ष्मी बाई की हमशक्ल भी थीं।  वे शत्रु को गुमराह करने के लिए, लक्ष्मी बाई के भेष में युद्ध करती थीं।  अंतिम समय में उन्होंने रानी झाँसी के लिए ढाल की तरह कार्य किया था जब लक्ष्मी बाई के एक गद्दार सेनापति दूल्हेराव ने किले का द्वार अंग्रेजों के लिए खोल दिया था तो लक्ष्मी बाई को किले से सुरक्षित निकालने के लिए झलकारी बाई ने आगे बढ़कर अंग्रेजो से लड़ाई लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुईं।  उन्होंने उस  अंतिम समय रानी लक्ष्मी बाई से क्या कहा होगा।  उनके मन के उदगार और भाव को प्रदर्शित करने का प्रयास मैंने इस कविता के माध्यम से किया है --





                अब तो यह अंतिम रण होगा ,

                पीछे नहीं हटना प्रण होगा। 

    क्या शत्रु रानी को हाथ लगाएगा?

    जीते जी, यह कभी न होने पायेगा।

                जब तक है रक्त बून्द तन में ,

                पीछे न हटूंगी इस रण में। 

    रानी रही तो यह झाँसी होगी ,

    वर्ना जैसे शिव विहीन काशी होगी। 

                तुमको ही यह "तम" हरना होगा,

                पर आज मुझे यहीं मरना होगा। 

    है शपथ मुझे  न अब पीछे हटूंगी,

    अंतिम सांस तक इस रण में डटूँगी,

                तुम जाओ भविष्य पुकार रहा,

                मेरा तुम्हारा यहीं तक साथ रहा। 

    अब घनघोर घटा छा जाने दो,

    उस शत्रु को आ जाने दो। 

                यहीं दो दो हाथ करुँगी मैं ,

                किसी दावानल से न डरूंगी मैं। 

    रानी अब शीघ्र यहाँ से प्रस्थान करो,

    मेरा यह अंतिम प्रणाम स्वीकार करो। 


रानी लक्ष्मीबाई (जन्म: 19 नवम्बर 1828– मृत्यु: 18 जून 1858) 


             मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 की राज्यक्रान्ति की द्वितीय शहीद वीरांगना थीं। उन्होंने सिर्फ 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं। बताया जाता है कि सिर पर तलवार के वार से शहीद हुई थी लक्ष्मीबाई।

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग उसे प्यार से "छबीली" कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली। सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

ब्रितानी राज ने अपनी राज्य हड़प नीति के तहत बालक दामोदर राव के ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया। हालांकि मुक़दमे में बहुत बहस हुई, परन्तु इसे ख़ारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का ख़ज़ाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।


2.कविता : माँ, बेटी और प्रकृति 

                              प्रहलाद परिहार



अहा ! देखा मैंने एक नन्ही सी बालिका को
थामकर माँ का आँचल, राह चलती कलिका को
कैसा अद्भुत दृष्य !

कितनी खुश कितनी निश्चिन्त है वह
माँ देखेगी सहीं राह, यह है कि वह ?
देखती जाती आसपास !

चली जा रही थी माँ आगे, बेटी थी पीछे
माँ के हाथों में था थैला, बच्ची थी आँचल खींचे
टुकुर-टुकुर उसकी आंखें !

कैसा देवत्व है माँ और बेटी के रिश्ते में ?
वो सब जो हो सकता है एक फ़रिश्ते में
मन पर छप गया चित्र !

और आज ही सुना मैंने एक बुरा समाचार !
ये वो दुनियां नहीं जिसका था हमें विचार।
बच्चों के लिए असुरक्षित !

राक्षस भी इतना नीच नहीं जितना इंसान,
कौन हो तुम कहाँ है तुम्हारा ईमान ?
शर्मिंदगी भी है शर्मिंदा !

ईश्वर की बनाई इस खूबसूरत दुनियां में
ये इंसानी बदनुमा दाग कब तक रहेंगे ?
हे प्रकृति तू ही इन्हे सुधार !

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